मैं हूँ बड़ा फेंकू

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

मैं बड़ा कामचोर इंसान हूँ लेकिन उपदेश देने में किसी से कम नहीं हूँ। इसलिए मैं इस विकासशील देश का सबसे जुझारू और फिट बैठने वाला नागरिक हूँ। अब आपसे क्या छुपाना, खुद मुझसे मेहनत होती नहीं, यदि होती तो भी मैं करता नहीं। कारण ये हैं कि खुद काम करने की ना मेरी आदत है और ना ही संस्कार, लेकिन फेंकू पसंद हूं तो हूं। आदत और पसंद में थोड़ा टकराव जरूर है पर उम्मीद है आप इसे माइंड नहीं करेंगे। रिक्वेस्ट के बावजूद माइंड करो तो करो, मुझ पर कोई असर होने वाला नहीं है। मेरा काम फेंकना है वो मैं करता रहूंगा।

इधर-उधर बकौती से ज्यादा काम करने वाले मिल जाते हैं। काम करना उनकी मजबूरी है, मैं उनका मखौल उड़ाता हूं। उनके काम का। इसलिए मेरे मन में उनके काम के प्रति कोई आभार-वाभार नहीं है, पर मुझे फेंकना पसंद है। साफ कपड़े पहनना मेरी प्रथमिकता है, अक्सर झक्क सफेद कपड़े पहनता हूं। कपड़े धोबी धोता है, जाहिर है उसके काम को लेकर मेरे मन में कोई आदर भाव नहीं होता है,  उसका काम है भई,  काम के मैं पूरे पैसे जो देता हूं। मेरा महत्वपूर्ण योगदान यह है कि मैं सफाई पसंद हूं। मेरे वाहन को धोने के लिए रोज एक आदमी आता है, एक माली है जो बागीचा साफ करता है। टायलेट मुझे एकदम साफ और चमकीला चाहिए। एक व्यक्ति बरसों से, बल्कि यों कहना चाहिए कि पीढ़ियों से हमारे यहां यह काम करता आ रहा है। मैं उसे कुछ पैसों के अलावा फटे-पुराने कपड़े भी देता हूं। आप पूछेंगे किसलिए,  तो साफ है कि मैं फेंकने वाला इंसान है। वह क्या है न हमारे देश में चकाचक सफेद खादी वाली कुर्ता पहनकर जितना फेंको लपेटने वाले हमेशा तैयार रहते हैं। यहाँ लोग आदमी की बात उसकी औकात से सुनते हैं। हमारे यहाँ औकात शिक्षा से ज्यादा कपड़ों और जूतों में बसता है। विश्वास न हो तो संसद ही झांककर देख लो।

आपकी जानकारी के लिए बताउं,  मैं रोज सुबह-सुबह स्नान कर लेता हूं और इसमें किसी की धेला-भर सहायता नहीं लेता हूं सिवा इसके कि कोई पानी गरम कर दे,  तौलिया और चड्डी बाथरूम में लटका दे, साबुन-कंघा-तेल रख दे, हर रविवार शैंपू का पाउच काट कर सामने रख दे और रिमाइंड करा दे कि शैंपू रखा है। बस। इसके अलावा कुछ नहीं। घर वाले ये काम बिना पैसा लिए,  बिना किसी दबाव के खुद ही कर देते हैं। रिश्ता-नाता कहाँ जाएगा। वे बहुत सारे काम, यानी घर के करीब करीब सारे ही काम करते हैं। 

मेहनत से खाना बनाते हैं,  मेहनत से परोसते हैं। अगर मैं लंबी-लंबी फेंकनेवाला पसंद नहीं होता तो वे क्यों करते ये सब। उन्हें पागल कुत्ते ने तो काटा नहीं,  न शास्त्रों में कहीं लिखा है और ना ही पुरखों ने कह कर भेजा है कि जा अपने खानदान-ए-चिराग को रोज नहाने-खाने के लिए प्रेरित कर। मैं खुद देश  का मेहनत पसंद नागरिक हूं और अपनी आत्मप्रेरणा से रोज लंबी-लंबी फेंकता हूं। बीच-बीच में कभी नागा होता भी है तो उसका कारण सरकार का मौन यज्ञ अभियान होता है। अच्छे नागरिक का कर्तव्य है कि वो सरकार की हर योजना का यथाशक्ति समर्थन करे।

अब आइये घर के बाहर का भी कुछ बताते चलें आपको,  वरना कहोगे कि अधूरी जानकारी दी। घर से निकलते ही पेड़ के नीचे बैठे परंपरागत पादुका-सेवक से मैं अपने जूते पालिश  करवाता हूं। इतने चमकवाता हूं कि कोई चाहे तो उसमें देख कर कंघी कर ले। दफ्तर में पहुंचता हूं और सबसे पहले देखता हूं कि चपरासी ने सफाई ठीक से की है या नहीं। एक बात बता दूं कि हमारा चपरासी सफाई तो बढ़िया ही करता है। 

लेकिन मैं खनदानी सफाई पसंद हूं,  इसलिए मेरी नजर वहीं पड़ती है जहां जरा सी भी सफाई छूट गई हो। ऐसे में एक क्लासिक हंगामा तो बनता ही है। दफ्तर को सिर पर उठा लेता हूं, खूब चिल्ला लेता हूं। इससे मेरा एक्सरसाइज का कोटा पूरा हो जाता है। साथ ही लोगों में मेरी यह धाक भी जम जाती है कि साहब बड़े मेहनत पसंद हैं। मेरा ख्याल है कि आप प्रभावित हो चुके होंगे मुझसे। 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार