निराला की स्वच्छन्दवादिता।

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावादी काव्य धारा सबसे महत्वपूर्ण काव्य है प्रवृति के रूप में स्वीकृत है। छायावाद का प्रार्दुभाव द्विवेदी युग के बाद हुआ। कुछ लोगों के अनुसार यह समय प्रथम महायुद्ध और द्वितीय महायुद्ध के बीच का समय है। छायावादी धारा अपनी प्रमुख प्रवृतियों के आधार पर अपनी पूर्व काव्य धारा से पूर्णतः भिन्न है। इसी लिए आलोचकों ने कहा है कि छायावाद द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता के विरोध उत्पन्न काव्य धारा है। कुछ लोगों ने इस पर अस्पष्टता आध्यात्मिकता रहस्या, छायाभास आदि का आरोप लगाया है तो कुछ लोगों ने इस स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहा है। इस प्रकार छायावाद की अनेक विशेषताएँ उपस्थित की गई है किंतु छायावाद की प्रमुख प्रवृति स्वच्छंदवादिता है। यह प्रवृत्ति छायावाद के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ती है। शुक्ल जी ने छायावाद को स्वच्छंदतावाद से सम्बोधित किया है और इसे रहस्यवाद के नजदीक बतलाया है। बाद के आलोचकों ने छायावाद को स्वच्छंदवाद मान लिया है। यद्यपि छायावाद में रहस्यवाद एवं स्वच्छंदतावाद दोनों के तत्वों का समन्यवय देखा जाता है। वास्तव में इन दोनों में बहुत सूक्ष्म अंतर भी है जहां रहस्यवाद अज्ञात के प्रति जिज्ञासा का भाव रखता है वहां छायावाद में चित्रण की सुखमता दृष्टिगोचर होती है और स्वच्छंदवाद प्राचीन रूढ़ियों से मुक्ति की आकांक्षा रखता है। वास्तव में ये तीनों तत्व छायावाद की विशेषताओं को प्रकट किया है, किंतु जहां प्रसाद में सौंदर्य की सूक्ष्मता अधिक है, वहीं महादेवी में रहस्यवादिता है। जहां सूक्ष्म प्रकृत तत्वों को उपस्थित करने की प्रबल प्रकृति पंत में अधिक है वहां स्वच्छंदवादी निराला हैं।

वैसे तो छायावाद के प्रत्येक कवि ने किसी न किसी रूप में यह घोषणा की है कि मैं ने मैं शैली अपनायी । मैं शैली में समाजगत रूढ़ियों से मुक्ति की कामना प्रबल है। समाज का बिना भय किये मनोगत भावों को विलक्षणता के साथ अभिव्यंजित करना मैं शैली है। निराला की 'सरोज-स्मृति' में मैं शैली तथा स्वच्छन्दवादी प्रवृति एवं रूढ़ियों के प्रति विद्रोह भावना की पूर्ण अभिव्यंजना हुई है। अपने जीवन की निजी बातें कवि ने इस कविता में स्पष्ट करने की चेष्टा की है। कवि के मन में समाज के प्रति विद्रोह भाव है इसलिए उसने पुरानी सामाजिक रूढ़ियों आकर आधुनिक अर्थ-व्यवस्था पर कठोर प्रहार किया है। जाति-व्यवस्था पर प्रहार करते हुए कवि निराला ने कहा है-

सोचा मन में हत बार-बार -
"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल -- नहीं सुजल।" (सरोज स्मृति)

निराला ने गंवार दामाद के के चित्रण में भी विद्रोह की विलक्षणता दिखलायी है-

"वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों, पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते घोर गन्ध
उन चरणों को मैं यथा अंध
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ ऐसी नहीं शक्ति।"

समाज की तमाम रूढ़ियों को चुनौती देते हुए निराला ने अपनी लवणमय पुत्री का अत्यंत ही सुंदर वर्णन किया है और परनिया पुत्री की सुहाग रात की व्यवस्था भी स्वयं की है-

'पुष्प सेज तेरी स्वयं रची'

स्वच्छंदवादी कवियों की प्रवृति सामाजिक रूढ़ियों में बंधकर नहिंस रह सकती वह स्वच्छन्द होकर सम्पूर्ण सृष्टि को अपने में समाहित कर लेना चाहता है। उसमें आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा है, उसमें आत्मप्रचार की शक्ति प्रबल है, किंतु इसके विपरीत समाज की चहारदीवारियों में बंद है। आत्म प्रचार की आकांक्षा के कारण कवि की पहली टकराहट पुरानी रूढ़ियों से होती है। पंचवटी प्रसंग में निराला के राम सीता को आत्मप्रचार का उपदेश देते हुए पारिवारिक सीमा की ओर संकेत करते हैं-

छोटे से घर की लघु सीमा में
बंधे हैं क्षुद्र भाव
यह सच है प्रिये
प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है
सदा ही निश्रीम भू पर।

छायावादी कवि प्रत्येक दृष्टि से जाति भेद व देश भेद के विरुद्ध है। निराला इसमें अग्रगण्य हैं। अष्टम एडवर्ड के प्रति कविता में कवि ने इस भावना की अभिव्यक्ति की है। जब सम्राट अष्टम एडवर्ड ने एक निम्न जाति के विधवा स्त्री के प्रेम के लिए सिंहासन का परित्याग कर दिया तो निराला ने मुक्त कंठ से उनका गौरवगान किया-

विसन्ति शताब्दी
धनके मान के बांध को
कर जर-जर
ज्ञान का वध जो भर गर्जन
साहित्यिक स्वर्ण, जो करे गन्ध
मधु का वरजन, वह नहीं भ्रमर
मानव-मानव से नहीं मिल
निश्चय हो श्वेत कृष्ण अथवा
वह नहीं भिन्न भेदकर पंक
निकलता कमल जो मानवता का
वह निष्कलंक हो कोई सर

पुरानी संकीर्णताओं में धार्मिक संकीर्णता सबसे अधिक प्रबल है। धर्म के ठेकेदारों ने भगवाब के भक्तों को ही नहीं, भगवान को भी मंदिर में कैद कर लिया है। निराला का कहना है कि '....हमारे ठाकुर जी तो मंदिर के अहाते से बाहर भी नहीं निकल पाते हैं। न हमारे ज्ञान से और न अपने कर्मो द्वारा।'

छायावादी कवियों की स्वच्छंदवादी प्रवृति का सबसे सुंदर प्रतीक निर्झर है इसलिए प्रायः सभी कवियों ने निर्झर पर पर्याप्त कविताएँ लिखी हैं। जिस तरह निर्झर शिला खंडों के गतिरोधों को तोड़ता हुआ , वेग से अनन्त जलनिधि की ओर चल पड़ता है उसी प्रकार छायावादी कवि निराला भी अपनी स्वच्छंदवादी प्रवृति के कारण सामाजिक, धार्मिक आर्थिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए आगे बढ़ते गये हैं। दुर्गा से उनकी प्रार्थना है कि असुर विजयनी दुर्गा दोनों असुरों का संहार करें-

"चूर चूर हो स्वार्थ साद तब
मां ह्रदय को महा श्मशान
नाचे उस पर श्यामा धन रण
ले निज कर में भीम कृपाण।"

इस प्रकार छायावादी कवि निराला ने अपनी काव्य में स्वच्छंदवादी प्रवृति अपनाया है। इतना ही नहीं निराला ने समान को वैसी ही प्रेरणा दी है जैसी प्रेरणा से वे स्वयं उत्पीड़ित हैं। कवि को सर्वत्र विषमता, रूढ़ि, पराधीनता, अन्याय दिखाई पड़ा है। उसने सभी के प्रति विद्रोह भाव को अपनाया है। निराला ने जन मानस को प्रेरित करते हुए कहा है-

"मुक्त हो सदा ही तुम
बाधा विहीन छंद बंध ज्यों
तुम हो महान तुम सदा हो महान
है नश्वर यह दीन भाव
कायरता काम परत
पद रज भर भी नहीं है
पूरा यह सृष्टि भार।"

निराला ने अपनी इस प्रकृति का परिचय पूंजीवाद के प्रति विद्रोह भाव को प्रकट करके दिया है। वर्ण तथा धर्म परायण बन कर धनी वर्ग बंदरों को भरपेट करा सकता हैं किंतु भूखे और भिखमंगे मनुष्य की ओर दृष्टि उठा कर देखता भी नहीं है। निराला की 'दान' शीर्षक कविता इसका उदाहरण है-

"झोलों से पूये निकाल लिये
बढ़ते कपियों के हाथ दिये
देखा भी नहीं उधर फिर कर
जिस ओर खड़ा वह भिक्षु इतर
चिल्लाया किया दूर मानव
बोला मैं धन्य श्रेष्ठ मानव।"

निराला ने स्वाधीनता संग्राम की प्रशंसा इसलिए की है कि यह संग्राम स्वच्छंदवादी प्रवृति से उत्पन्न है। इस संग्राम में सम्पूर्ण मानवता को उत्तेजित करते हुए कवि ने सभी को गीता का स्मरण कराया है और अतीत की यह स्मृति दिला कर भविष्य के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा दी है-

'पश्चिम की उगती नहीं
गीता है गीता है
स्मरण करो बार बार
जागो फिर एक बार।'

स्वच्छंदवादी प्रवृति के कारण ही छायावादी कवियों की प्रमुख दृष्टि कल्पना पर गई है। निराला तो कविता मात्र को कल्पना के कानन की रानी मानते हैं। वास्तव में कल्पना स्वच्छंदता की चरम सीमा है। कल्पना में कवि को आत्म प्रसार का अवसर मिलता है और कवि की चेष्टा है कि उसकी आत्मा सर्वदा असीम बनी रहे-

विश्व सीमा ही न बाँधती जाती मुझे कसकर
व्यथा आए दीन कह रही हो दुःख की विधि
यह तुम्हें ला दी नयी निधि
विहग की वे पंख बदलर
किया जल का भी न
मुग्द अम्बर गया
अब हो जलधि जीवन।

छायावाद कवियों की प्रमुखता प्रवृति भाव पक्ष में ही नही बल्कि कला पक्ष में भी स्वच्छन्दता से युक्त रहीं। सर्वप्रथम निराला ने प्रचीन रूढ़ियों को तोड़कर कला को नये ढंग से सुसज्जित किया है। रूप विन्यास, पद योजना, अन्योक्ति सरजन-शब्द-संकलन, अर्थ भंगिमा, छंद योजन आदि प्रत्येक क्षेत्र में इन कवियों ने स्वच्छंदवादी प्रवृति को अपनाया है।निराला इसमें अग्रगण्य हैं। निराला ने राम के विराट रूप को रूप को ऐसे पर्वत से उपमित किया है जिसपर रात्रि का अंधकार उतर चुका है और जिसके ऊपर दो तारिकाएं चमक रहीं हैं। रूपक का यह नूतन विधान परम्पराधीन होकर पूर्णतः नवीन विधान है-

'दृढ़ जटा मुकुट हो विपर्यस्त
प्रति लट खुल
फैला पृष्ट पर बाहुओं पर, वक्ष पर विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नये सधकार
चमकी दूर ताराएँ ज्यों हो कहीं पर।'

निराला ने छंद के क्षेत्र में भी अनेक नवीन प्रयोग किए हैं। भावों की अभिव्यक्ति में छंद विधान बाधा का काम करता है। तुक और छंद की सीमा को तोड़कर निराला ने काव्य में सिर्फ भाषा के लय पर जोर दिया लय भाषा का प्राण तत्व है। निराला की छंदहीनता उनकी स्वच्छंदवादी प्रवृति की देन है। 'जूही की कली' मुक्त का अनुपम उदाहरण है-

" विजन वन वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी
स्नेह स्वप्न मग्न
अमल कोमल तन तरुणी
जूही की कली
दृग बन्द किये शिथिल पत्रांक में।"

इस प्रकार निराला ने स्वच्छंदवादी प्रवृति को पूर्ण रूप से ग्रहण किया है। उनका भाव एवं कला दोनों पक्ष स्वच्छंदवादिता की प्रवृति से युक्त है अगर छायावाद को स्वच्छंदवाद कहा जा सकता है तो यह कथन निराला के काव्य द्वारा ही सार्थक हो सकता है। यदि छायावाद स्वच्छंदतावाद है तो एकमात्र निराला की देन है।

  - संतोष पटेल
वरिष्ठ साहित्यकार