जैसे को तैसा

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

करने वाले तो हर दिन योगाभ्यास करते हैं, मैं तो व्यंग्याभ्यास करता हूँ। हर दिन एक व्यंग्य। लिखता तो रद्दी ही हूँ न जाने क्यों उस दिन नारद जी प्रकट हो गए। मैं दंडवत प्रणाम करने की जगह उनसे उनका आधार कार्ड, हवा में उड़ने का लायसेंस पूछ बैठा।

 नारद जी बोल उठे – बेटा मैं जानता हूँ कि तुम व्यंग्य लिखते हो इसका मतलब यह नहीं कि तुम मुझी पर अपने व्यंग्यास्त्र साधो। मुझे तुम्हारे कुछ व्यंग्य पसंद हैं। बस जानना यह चाहता हूँ कि क्या तुम सच में विसंगतियाँ खोजकर व्यंग्य लिखते हो या फिर ख्याली पुलावों से कोरा कागज़ काला करते हो।

मैंने नारद जी के सामने बड़ी विनम्रता से कहा – मैं विसंगतियों की कामना करने वाला व्यंग्यकार हूँ। कोई दिन बिना किसी हलचल के गुजर जाए तो बदनभर में खुजली होने लगती है। मैं तो ऊपर वाले से प्रार्थना करता रहता हूँ कि हे भगवान आज कुछ ऐसा मसाला देना कि मेरा व्यंग्य सूपर-डूपर हिट हो जाए।

नारद जी ने कहा – यह क्या बेटा अपने एक अदद व्यंग्य के लिए इस तरह विसंगतियों की कामना करना कहाँ ठीक है और ऊपर से उसे मसाला कहते तुम्हें शर्म नहीं आती?

मैंने कहा – हे प्रभुवर मैं तो केवल उसे मसाला कहता हूँ जब कि सरकार सरे आम लड़कियों को नंगा करके पीटने पर भी धृतराष्ट्र बनकर स्वयं को धर्म का रक्षक घोषित करती है। अपनी बेरोजगारी, महंगाई, लाचारी जैसी नपुंसकता को छिपाने के लिए धर्म का मुद्दा गरमा देते हैं। मैं यह बातें यूँही नहीं कर रहा हूँ। मेरी जान-पहचान तो जान बचाने वाले डॉक्टर से लेकर जान निकालने वाले कसाई तक है। फर्क इतना है कि अब वही डॉक्टर जान निकालने और कसाई जान बचाने की कोशिश में लगा है। मेरा पुलिस वालों से लेकर गुन्डों तक तथा नेता से लेकर उनके चमचों तक उठना बैठना है। 

उन्हीं की छत्रछाया के चलते मैं व्यंग्य लिख पाता हूँ। नारद जी आप तो सर्वज्ञाता हैं, क्यों न मैं आपको अस्पताल की दुनिया दिखा लाऊँ। सो अपनी बाइक में टंकी फुल कर उन्हें पीछे बिठा लिया और चल पड़ा। अस्पताल पहुँचते ही चूहे डॉक्टरों और नर्सों से तेज दौड़ रहे थे। मानो मरीजों को देखने की जिम्मेदारी इन्हीं पर है, इसीलिए डॉक्टर और नर्स बड़े फुर्सत में है। उन्हें इंश्योरेंस वाले मरीजों से उतना ही प्यार है जितना कि बीवी के रहते पड़ोस वाली औरत से।

रास्ते में स्कूल पड़ा। अध्यापक बच्चों को भैंस चराने के लिए भेजकर खुद तीन पत्ती खेलने में मस्त थे। यह देख नारद जी ने बाइक रोकने के लिए कहा और पूछने लगे - ये अध्यापक यहाँ क्या कर रहे हैं।

नारद जी यह विद्यालय है - सरकारी विद्यालय। विद्यालय? नारद जी ने आश्चर्य से पूछा यहाँ तो केवल अध्यापक हैं पर कोई छात्र नहीं – ये अध्यापक पढ़ाने की जगह ऐसा कौनसा महान काम कर रहे हैं?

मैंने कहा – नारद जी सरकार खुद ड्रीम लेवन खेलने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। अध्यापकों की भैंसे खुली हैं लेकिन उनकी तनख्वाह बँधी हुई है। ऊपर से तीन पत्ती खेलकर ऊपरी कमाई अलग से करते हैं।

हम आगे बढ़े। नारद जी ने पूछा यह महोदय क्या बेच रहे हैं ? मैंने कहा - माँ ये शिक्षक है - प्रमाण-पत्र बेच रहे हैं। असफल विद्यार्थियों का उद्धार करते हैं - बड़े दयालु हैं - बेचारे। गधों को घोड़े कहलाने का कागज़ी प्रमाण पत्र बेचते हैं। नारद जी ने दूसरी ओर देखते हुए पूछा – उस बड़े से भवन में किस बात की भीड़ है ? मैंने कहा – नारद जी यह विश्वविद्यालय है। यहाँ सभी विद्या के बड़े-बड़े रहनुमा छोटे-छोटे काम करते हैं। सरकार का तलुवा चाटते हुए छात्रों को धर्म, जात-पात और वैचारिकी के नाम पर बाँटने का काम करते हैं।

मैंने अंत में नारद जी से पूछा – अब बताइए क्या मैं इनसे गया गुजरा हूँ। मैं तो केवल व्यंग्यसाधना के बल पर समाज को जागरूक करने का काम करता हूँ।

नारद जी ने कहा – सही कहते हो। तुम्हारे घर में इतनी सारी किताबें पड़ी हुई हैं, लेकिन पढ़ी एक भी नहीं है।

मैंने आश्चर्य से पूछा – आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?

नारद जी का उत्तर मेरे व्यंग्यकार होने का सारा घमंड चकनाचूर करने वाला था – यदि किताबें पढ़ी होती तो तुम समाज की विसंगतियाँ नहीं उसकी अच्छाइयाँ देखते। उन अच्छाइयों से विसंगतियों को दूर करने का प्रयास करते। आज का व्यंग्यकार पुलिस, डॉक्टर, नेता, ठेकेदार आदि से भी जानलेवा हो गया है, क्योंकि उसे विसंगितयाँ विचलित नहीं मज़ा देने लगी हैं।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657