युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
जिस्म ने रूह से बग़ावत की है,
नज़रों ने तुम्हें देखने की हिमाक़त की है।
आसाँ होता जो पी लेते हिज़्र का ज़हर हम,
कि दिल ने वस्ल-ए-यार की चाहत की है।
पूजते जो इतना तो रब भी मिल जाते शायद,
जाने किस पत्थर दिल से हमने मोहब्बत की है।
मेरे हमनफ़स तुम्हारी आँखों से देखनी थी दुनियां,
मयस्सर चराग़ नहीं और जुगनुओं की हसरत की है।
पैरहन समझ 'संवेदना'वो बदलते रहे चाहत अपनी,
ख़ुश रहो तुम सदा हमने तो तुम्हारी इबादत की है।
डॉ0 रीमा सिन्हा 'संवेदना'
लखनऊ