कैथूली की प्राचीन जिनप्रतिमाएँ (प्रथम स्तवक)

मध्यप्रदेश के मंदसौर जिलान्तर्गत भानपुरा के निकट कैथुली ग्राम है। यहाँ श्री 1008 पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कैथूली है। यह म.प्र.- राजस्थान सीमा एवं अरावली पर्वत श्रृंखला की तलहटी पर स्थित है। यह स्थल ११०० वर्ष प्राचीन माना जाता हैै। यहाँ कई अति प्राचीन एवं मनोहारी प्रतिमाएँ हैं। जिनालय के गर्भगृह में वेदियाँ हैं। एक सुरंग का गन्तव्य अज्ञात है। गर्भगृह में एक प्राचीन शिलालेख होने से ऐतिहासिक संकेत उभरे हैं। शिलालेख एवं किंवदंती के अनुसार यहाँ भगवान चन्द्रप्रभु की प्राचीन प्रतिमा होनी चाहिए। संभव है कि किसी तलघर में मूर्तियों का खजाना मिले। 

तीन अन्य शिलालेख भी यहां स्थित हैं। यहाँ कुल ४० जिनबिम्ब विराजमान हैं। निकटवर्ती रेलवे स्टेशन व बस स्टैण्ड रामगंज मण्डी 16 कि.मी की दूरी पर स्थित है। प्रमुख नगर रामगंज मण्डी 16 किमी. रामगंज मण्डी से सड़क मार्ग मंदसौर-गरोठ 105 कि.मी., भानपुरा से 25 कि.मी., नीमथुर 13 कि.मी., चाँदखेडी -90कि मी, झालरापाटन - 50कि.मी. की दूरी पर स्थित हैं। इस लेखमाला में हम क्रमशः यहाँ की प्राचीन प्रतिमाओं और शिलालेखों का परिचय व विश्लेषण करेंगे।

कैथूली की नवतीर्थी सपरिकर पार्श्वनाथ जिनप्रतिमा

बलुआ पाषाण में कायोत्सर्गस्थ इस प्रतिमा का पादपीठ कलात्मक व वृत्ताकार है। सर्प के सात फणों से जिनेद्र का मस्तकाच्छादन है। कुंचित केश और उष्णीष उकेरा गया है। सर्पफणावली के ऊर एक दण्ड पर आधारित सामान्य त्रिछत्र है। छत्र का क्रम नीचे बड़ा, उसके ऊपर थोड़ा छोटा और सबसे ऊपर अनुपात में और छोटा़ छत्र है। कर्ण स्कंधों को स्पर्श कर रहे हैं किन्तु स्कंधों पर केश-लटिकाएं नहीं हैं, वे प्रायः आदिनाथ की प्रतिमा पर दर्शाने का विधान रहा है। मूलनायक प्रतिमा के हृदयस्थल पर गाम्भीर्य का द्योतक सुन्दर श्रीवत्स उत्कीर्णित है। इस प्रतिमा के नाभि के नीचे उदर, दाहिनी जंघा और शिशिन में खरोचें हैं, जिन्हें स्वल्प खण्डित भी कह सकते हैं। हथेलियों पर चक्र बने हैं। इस प्रतिमा की मुखमुद्रा स्मित व सौम्य है।

मूलनायक प्रतिमा के दोनों पार्श्वों में चामरधारी द्विभंगासन में खड़े उत्कीर्णित किये गये हैं। इन प्रतिहारियों के मूलनायक प्रतिमा के तरफ के हाथों में चँवर हैं, विरुद्ध हस्त जंघा पर टेका हुआ दर्शाया गया है। इनके आभूषण और परिधान देवोचित हैं। चॅवरधारियों के शिरोमुकुट मूलनायक प्रतिमा की अंगुलिकाओं को स्पर्श करते हुए निर्मित हैं।

चामरधारियों के बाहरी ओर मूलनायक प्रतिमा के यक्ष-यक्षिणी निर्मित हैं। प्रतिमाशास्त्र के नियमानुसार मूलनायक के बाम भाग में यक्षिणी और दक्षिण में यक्ष है। प्रायः यक्ष-यक्षी ललितासन में या वाहन पर बैठे हुए दर्शाये जाते हैं, किन्तु इस प्रतिमांकन में विशेषता है कि शासनदेव-देवी द्विभंगासन में हैं। इनका पंचसर्पफणावली के छत्र से शिराच्छादित दर्शाया गया है, जिससे ज्ञात होता है, ये तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के शासनदेव-देवी धरणेन्द्र-पद्मावती हैं। दोनों को चतुर्भुज दर्शाया गया है।

 बाम भाग में उत्कीर्णित छबि के वक्षोरुओं के स्पष्ट सुडौल उभार के कारण प्रथमावलोकन से ही ज्ञात हो जाता है कि यह देवी प्रतिमा है। पद्मावती के ऊपर के दोनों हाथों में सनाल पद्मकलिका है, बाम अधोहस्त में पास और दक्षिण हस्त वरद मुद्रा में है। देव-देवियों के आभरण दर्शाने के लिए केवल अल्प अधोवस्त्र धारण किये हुए दर्शाया जाता है, पद्मावती यक्षिणी को भी केवल अधोवस्त्रधारिणी अंकित किया गया है। इसे एकावली, मौक्तिक हार, कण्ठिका, मुकुट, कर्णोत्पल, कटिमेखला, घर्घरमल्लिका, उरुद्दाम, बाजूबंध, कंकण, नूपुर आदि आभरणों से अलंकृत किया गया है।

दक्षिण पार्श्ववर्ती यक्ष धरणेन्द्र के आभरणों में देवी की अपेक्षा अधिक अन्तर नहीं है। इसके मुकुट में अन्तर है, यह किरीट धारण किये है। कानों में कुण्डल, गलहार, कटिसूत्र, भुजबंध, कलाई और पैरों में कड़े, अधोवस्त्र, यज्ञोपवीत, वनमाला अलग आभरित किये गये हैं।

परिकर में शासनदेव-देवी के ऊपर के स्थान और मूलनायक की भुजाओं के दोेनों ओर दो-दो पद्मासनस्थ लघु जिनप्रतिमा उत्कीर्णित हैं, ये समानान्तर नहीं, बल्कि एक के उपरिम एक हैं। इनके उपरान्त, मूलनायक के स्कंधों के समकक्ष माल्यधारी देव-देवी हैं। इसके उपरान्त पुनः एक के उपरिम एक, दो-दो पद्मासनस्थ लघु जिनप्रतिमा उत्कीर्णित हैं। इस तरह परिकर में आठ लघु जिन प्रतिमाएँ हैं और एक मूलनायक को मिलाकर इस शिलाफलक पर नौ जिन प्रतिमाएँ होने से यह नवतीर्थी पार्श्वनाथ प्रतिमा अभिहित की जायेगी।

प्रायः परिकर में माल्यधारी पुष्पवर्षक देव दोनों ओर एक-एक होते हैं, किन्तु इस शिल्पांकन में माल्यधारी युगल हैं, अर्थात् दोनों ओर के देवों के साथ उनकी देेवियां भी हैं। जिनेन्द्र की ओर आगे को देव जो अपने दोनों हाथों से माला या बड़ा-सा सनाल पुष्प लिए हुए है और उनके पीछे देवी विमान पर पर्यंंकासन में बैठी हुई है। अन्यत्र इन देवों को आकाश में उड्डीयमान दर्शाया गया है किन्तु यहां देवी के साथ होने पर विमनारूढ़ शिल्पांकित किया गया है। ये देव-युगल पूर्ण अलंकृत भी हैं।

मूलनायक के शिर के ऊपर का शिलाफलक वितान कहा जाता है। प्रस्तुत प्रतिमा के वितान में महत्वपूर्ण शिल्पांकन है। सर्पफणावली के ऊपर त्रिछत्र और त्रिछत्र के ऊपर मृदंगवादक है। इसके आगे बड़ा सा ढोल और उसपर थाप देता हुआ देव दर्शाया गया है। यह अधर में है किन्तु छत्र के ऊपर बैठा हुआ-सा प्रतीत होता है। त्रिछत्र के दोनों ओर एक-एक समपादासन में खड़ी हुई देवाकृति है, जो अपने हाथों में कुछ लिए हुए मृदंगवादक की ओर अभिमुख हैं। 

इनका शिल्पांकन उत्कृष्ट है। दोनों आकृतियों को मिलाकर इनका छुपा हुआ भाग भी दर्शक देख सकता है। दाहिनी ओर के देव का सामने का भाग दृष्ट है, तो बायें के देव का पृष्ठ भाग दिखाई देता है, तथापि मुखाकृतियां दोनों की देखीं जा सकती हैं। पूर्ण शिलाफलक पर यदि सर्वाधिक वैशिष्ठ्य अन्वेषित करेंगे तो अन्त में इन्हीं पर दृष्टि रुकेगी। ऐसीं देवाकृतियां संभवतः अन्यत्र जैन शिल्पांकन में अनुपलब्ध हैं।

ये दो देवाकृतियां क्या हैं? जैनागम के अनुसार जिनेन्द्र को केवलज्ञान के उपरान्त आठ विभूतियाँ होतीं है, जिन्हें अष्ट-प्रातिहार्य कहते हैं। उनमें एक है ‘देव-दुन्दुभि’, देवों के द्वारा दुन्दुभिवादन होता है। दुन्दुभि-वादक के प्रतीक के रूप में त्रिछत्र के ऊपर जो मृदंगवादक दर्शाया गया है, वह प्रायः सभी सपरिकर प्रतिमाओं में शिल्पित किया जाता है। इसमें जो दो देवाकृतियां हैं, वे मृदंगवादक की ओर इस तरह मुखातिव हैं कि जैसे वादन मण्डली के ही अंग हों और उनके हाथों में कोई अन्य वाद्य-यंत्र हो, यह मेरा अनुमान है, स्थापना नहीं।

वितान में मृदंगवादक के दोनों ओर सबसे ऊपर गजलक्ष्म्याभिषेक के दो गज शिल्पांकित हैं। बाईं ओर का गज पूर्णतः भग्न है, दायीं ओर का अंशतः भग्न है। अभिषेकातुर गजलक्ष्मी का सबसे ऊपर दर्शाना भी अपूर्व है। मृदंगवादक के ऊपर कुछ पत्तियां, डालियां जैसीं दिख रही हैं। 

वस्तुतः ये जिनेन्द्र का प्रथम प्रातिहार्य अशोक-वृक्ष की डालें व पत्र दर्शाये गये हैं। मूलनायक प्रतिमा की सर्प-फणावली से ऊपर वितान में पृष्ठभूमि में देखेंगे तो फणावली और छत्रत्रय के अन्तराल के स्थान में, छत्रत्रय के दोनों ओर और मृदंगवादक के शिर के दोनों ओर तथा ऊपर, अशोकवृक्ष की डालियां व पत्ते उकेरे गये हैं।

इस प्रतिमा के परिकर में अष्ट प्रातिहार्य हैं-1. अशोकवृक्ष, 2. त्रिछत्र, 3.सिंहासन- कलात्मक पादपीठ है, पद्मासन प्रतिमा के आसन पर सिंह दर्शाये जाते हैं। 4. दिव्यध्वनि- जिनेन्द्र के मुख से खिरती है, जो अदृश्य होती है। 5. देव-दुन्दुभि- इस प्रतिमा में अच्छी तरह दर्शाया गया है। 6. पुष्पवृष्टि- माल्यधारी देव, पुष्पवर्षक देव, उड्डीयमान देव प्रायः सभी जिन-परिकरों में दर्शाये जाते हैं। 7. भामण्डल- प्रभावल, प्रभामण्डल तीर्थंकर के मस्तक के पीछे दर्शाया जाता है। फणाटोपित प्रतिमाओं का फण ही भामण्डल होता है, क्योंकि फणों के कारण उसे शिल्पित नहीं किया जा सकता है। 8.चामर- चामरधारी, चॅवरधारी, चामरी, प्रतिहारी ये अधिकांश सपरिकर प्रतिमाओं में होते हैं, इसमें भी शिल्पित हैं।

विशेषताएँ -

इस प्रतिमा के शिल्पांकन में कई विशेषताएँ है- 1.यक्ष-यक्षी प्रायः बैठे हुए दर्शाये जाते हैं, इसमें द्विभागासन में खड़े हुए हैं। 2.मूलनायक की हथेलियों में चक्र बने हैं। 3.पुष्पवर्षक देव एकल दर्शाये जाते हैं, इसमें देव-देवी युगल हैं। 4. पुष्पवर्षक आकश में उड्डीयमान (उड़ते हुए) दर्शाये जाते हैं, इस प्रतिमा में ये विमान पर आरूढ़ हैं। 5.सामान्यतया देव-दुन्दुभि का केवल मृदंग अंकित किया जाता है, इसमें मृदंग-वादक पूर्ण शिल्पित किया गया है। 6.दुन्दुभि-वादकों में दो देव खड़े हुए अतिरिक्त दर्शाये गये हैं, इस प्रतिमा में यह अनुपम उदाहरण है। 7. गजलक्ष्मी के गजों का अंकन मुख्य प्रतिमा के मस्तक के निकट होता है, इस प्रतिमा में वितान में सबसे ऊपर है। 8. स्थान नहीं होते हुए भी अशोकवृक्ष को दर्शाया गया है। इन सब विशेषताओं से भी यह शिल्पांकन विशिष्ट है। इस प्रतिमा का समय लगभग दसवीं शताब्दी हो सकता है।

डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’

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