सर्द दिनों में सर्द की रातें और सर्द का दिन बदन को तार-तार कर देता है। इस सर्दी के मारे सूर्य मुँह छिपाए फिरता-रहता है। इसी में वह स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। चारों दिशाओं से सर्द हवाएँ शत्रु देश के हमले से कम नहीं होतीं। जहाँ देखो वहाँ कोहरा ही कोहरा। पता ही नहीं चलता कि इस दुनिया में हमारे सिवाय कोई है भी या नहीं। आजकल टूटते-बिखरते-धुँधलाते रिश्तों के बीच कोहरा हमारी वास्तविकता को आईना दिखाता है। चलिए, इसी बहाने हम से हमारा परिचय हो जाता है।
चारपाई पर लंबी ताने रजाई ओढ़कर सोने का सुख किसी स्वर्ग से कम नहीं है। कहते हैं सर्दियों में रंग-रंग के सपने आते हैं। लड़का है तो राजकुमारी और लड़की है तो उसके सपनों का राजकुमार उसे झट मिलने आ जाता है। सर्दियों में हर कोई एक-दूसरे को धोखा देने की ताक में खड़ा रहता है। हमारे पंचतत्व जैसे हवा अपनी गति भूलकर ठोस बन जाती है, आसमान के नाम पर चारों ओर एक घना परदा छाया रहता है। आग भी अपने स्वभाव को बचाने के लिए कोहरे से जद्दोजहद करती है।
पानी का हाल तो पूछिए ही मत। वह अपने हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के बीच सारे रासायनिक समीकरण भूलकर दल-बदलू राजनेताओं के समान मौसम के साथ समझौता कर उसी की तूती बोलने लगता है। जहाँ तक धरती की बात है तो भाई शुक्र मनाइए कि वह हमें रहने-ठहरने की जगह भर दे देती है, वरना रंग बदलने वाले गिरगिट जैसे इंसानों को यह सब भी कहाँ नसीब होता है।
अब तक आप समझ रहे हैं होंगे कि मैं कहाँ का सर्द पुराण खोल बैठा।
सच तो यह है कि देश की सारी सच्चाई इसी सर्दी में छिपी हुई है। यह मौसम न केवल वर्षा और गर्मी का मिलन करवाता है बल्कि झूठ और सच के बीच में छिपे मिथ्या का भी पर्दाफाश करता है। वर्षा की बाढ़ और गर्मी के अकाल से बेहाल लोगों को ‘अच्छे दिन’ की आस संजोए रजाइयों में सोने का अवसर देता है। लेकिन इसी सर्द मौसम में छिपी हैं कई ऐसी बातें, जो हमें झकझोर कर रख देती हैं।
यह बात है उस बूढ़े बाबा की जो देश के हर कोने में नकारों की तरह दिखाई पड़ जाते हैं। यह वह बूढ़ा बाबा है जो अपने परिवार के द्वारा ठुकराया गया है। भीख माँगने के लिए उसे तमाशाई दुनिया में ठेल दिया गया है। जब तक गर्मी-बरसात थी तो जैसे-तैसे उसने खुद को बचा लिया। लेकिन यह सर्द मौसम उसकी जान पर आ पड़ा है। वह ठिठुरता, कराहता, बिलखता परमपिता ईश्वर से गुहार लगाता है- ‘हे खुदा!
मुझे इस सर्द मौसम से बचा ले।‘ वह कहता -भैया मैं एक हाथ से लाचार हूँ। आँखें भी मेरा साथ छोड़ चुकी हैं। बूढ़ी जो हो चुकी हूँ! हर दिन यही फटी पुरानी छतरी डाले इस पीपल के पेड़ के नीचे बैठा रहता हूँ। मैं बसों में खिड़की किनारे बैठे लोगों से संतरा खरीदने के लिए गिड़गिड़ा नहीं सकता। न ही सिग्नल के पास रुकी गाड़ियों के शीशे के आगे दस रुपये के तीन कहकर चिल्ला सकता हूँ।
मैं सड़े-गले फल की तरह यहाँ पड़ा रहता हूँ। हाँ यह अलग बात है कि आधार कार्ड में यह पता नहीं है। लेकिन मेरा दिल जानता है कि यही वह जगह है जो मेरे जीवन का आधार है। मेरी जिंदगी ढेर हो चुकी है। जब से मेरा इकलौता लड़का मुझे छोड़कर चला गया है तब से यही हाट मेरा बड़ा लड़का है। वह रह-रहकर साहबों के पैर पड़ता है। कई बार बोनी न होने पर अपने आप में रो-रोकर रह जाता है। वह घूम-घूमकर बेचने में लाचार है। उम्र के साथ उसकी कमर भी झुक गयी है।
जब तक जिंदा है तब तक जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना होगा न! उसमें इतनी जिल्लत सहने की हिम्मत नहीं कि वह भीख माँग सके। इसलिए फल बेच रहा है। वह फलों के सामने बैठता जरूर है, लेकिन भूख लगने पर इन्हें खाती नहीं। हाँ अगर कोई भिखारी आ जाता है तो उसे बिना चिढ़े एक फल उठाकर दे देता है। फुटकर पैसे न होने पर ग्राहक को एक फल ज्यादा दे देता है लेकिन छल-कपट नहीं करता। गायें, बकरियाँ मक्खियों की तरह यहीं चक्कर काटती हैं।
वह झल्ला जाता है, लेकिन कभी लकड़ी या पत्थर लेकर मारने की चेष्टा नहीं करता। किंतु कुछ दिन पहले उसका एक मात्र आशियाना पीपल का पेड़ विकास (यदि कोई न मरे तो उसे विकास कहा जाता है) के नाम पर सरकार द्वारा काट दिया गया। इससे देश का क्या विकास हुआ यह देश ही जाने, लेकिन उस बूढ़े बाबा का तो मानो सब कुछ उजड़ गया।
उस दिन से बूढ़े बाबा की लाठी दर-दर ठोकर खाने लगी। कहीं कोई ठिकाना नहीं मिला। अब तो सड़क के किनारे पेड़ अपने आपको लुप्त होते धरोहरों के रूप में देखने लगे हैं। अब तो उनकी जगह बड़े-बड़े कांक्रीट जंगल उग आए हैं।
अंतर केवल इतना है पेड़ो वाले जंगलों से ऑक्सीजन मिलता है तो कांक्रीट वाले जंगलों से टूटते-बिखरते रिश्तों का धुआँ निकलता है। बूढ़े बाबा को पेड़ तो दूर अब छांव भी नसीब होना दूभर हो गया था। मैंने किताबों में पढ़ा था कि इंसान बिना पानी के नहीं जी सकता। लेकिन आज मुझे पता चला कि वह पानी के बिना कुछ दिन तो जी सकता है लेकिन आशियाने के बिना एक पल भी नहीं।
बूढ़े बाबा अब दुकानों के सामने भीख माँगने की कोशिश करने लगा। लेकिन दुकान वाले उसे कुत्ते की तरह दुत्कार देते थे। उसे दुकान के पास भीख माँगने से सख्त मना कर देते थे। आशियाना न होने के कारण अब भूख, प्यास और सर्दी उसके सिर पर तांडव करने लगी।
सर्द दिनों में सड़कों पर लोगों की आवाजाही कम होती है। इस कारण अब कोई बूढ़े बाबा पर ध्यान देने वाला नहीं था। अब उसका शरीर जवाब देने लगा था। कमजोरी के कारण आँखें मूँदती जा रही थीं। नसों की तरलता खिंचाव में बदलती जा रही थी।
बदन में भूख की आग उसके शरीर की ठंडी को मिटाने में नाकाफ़ी था। अब उसे समझ में आ गया था कि उसका अंत चंद दिनों का मोहताज है। वह भगवान से प्रार्थना करने लगा- ‘हे ऊपरवाले! अब मेरी ईहलीला समाप्त कर दे। मुझसे यह भूख, प्यास, सर्दी, बीमारी सही नहीं जाती।‘
थोड़ी ही देर में वह जमीन पर ऐसा धराशायी हुआ जैसे किसी शिकारी के बाण से हिरण। दुकानवाले उसकी इस हालत को देखकर उसे अनदेखा कर दिया। इतना अनदेखापन तो जानवरों के साथ भी नहीं होता होगा। मानवता ह्रास हो रहा था।
सर्द मौसम में ग्राहकी कम होने के कारण दुकानदार दक्षिण भारत की यात्रा कर अब धीरे-धीरे लौटने लगे थे। साल का अंत होने वाला था। युवाओं में नए साल को लेकर बड़ा जोश था। इसी बीच चार युवा उस दुकान पर पहुँचे जहाँ पर यह बूढ़े बाबा लेटे थे।
बड़ी मुश्किल से उन युवाओं की उम्र बीस-इक्कीस की होगी। नए साल मनाने को लेकर उनका जोश सातवें आसमान में था। बूढ़े बाबा को लगा कि शायद ये लोग उसे खाने-पीने को कुछ दें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन युवाओं ने जमीन पर पड़े बूढ़े बाबा को देखकर भी अनदेखा कर दिया। उन्होंने दुकानों से शराब की बोतलें, केक, बिरयानी और न जाने क्या-क्या खरीदा।
खरीददारी कर अपनी कीमती बाइकों पर रफू चक्कर हो गए। उन युवाओं के ओझल हो जाने से एक पल के लिए लगा कि धरती माँ अब पहले की तरह नहीं रही। एकदम बदल गयी है। वैश्वीकरण के नाम पर मोबाइलों, लैपटॉप और कंप्यूटरों में सिमट गयी है। अब वह गोल नहीं सपाट हो गई। एक छोटा सा डिजिटल गाँव हो गई है। कार्पोरेट दुनिया की गुलाम हो गई है। गूगल, फेसबुक, अमेजान की मोहताज हो गई है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के घेरे में रोबोट बनकर खेल रही है। कभी ड्रोन तो कभी क्लाउड की दुनिया में घूम रही है। आंकड़े, दस्तावेज, श्रव्य-दृश्य सामग्री भंडारण करने वाली गोदाम हो गई है। ऊबर-ओला टैक्सी बनकर इधर-उधर चक्कर काट रही है। टिक-टॉक, वाट्सएप, ट्विटर, यूट्यूब, इस्टाग्राम जैसी सूचना प्रौद्योगिकी के मोहजाल में बांध दी गई है।
कुछ कहने के लिए वोडाफोन, एयरटेल, जियो और रहने के लिए एप्पल, सैमसंग, वीवो, ओप्पो, वन प्लस का मुँह ताकती है। अब उसका वैलिडिटी पीरियड भी फिक्स्ड होने लगा है। प्री-पेड और पोस्ट पेड की तरह जीने की आदी हो चुकी हो।
कॉर्पोरेट कॉरिडोर के आंगन में इलेक्ट्रॉनिक गजटों से खेलने लगी है। धीरे-धीरे खत्म होने लगी है। दुर्भाग्य यह है कि उसकी सेटिंग्स में कंट्रोल जेड का बटन भी नहीं है। वह चाहकर भी पहले जैसी नहीं बन सकती।
रात के समय उन युवाओं ने दोस्तों के साथ मिलकर पार्टी-शार्टी की।
नशे में धुत्त बाईक चलाते हुए सड़क पर आते-जाते लोगों को हैपी न्यू ईयर कहते हुए चिल्ला रहे थे। नए साल का स्वागत करते हुए एक से बढ़कर एक संकल्प लेने लगे। कोई महीने में एक बार किसी गरीब को सहायता करने की बात कहता, तो कोई सिगरेट, दारू छोड़ने और मन लगाकर पढ़ने की।
अगली सुबह अपने संकल्पों को साकार रूप देने और किसी की सहायता करने के मकसद से वे लोग उस बूढ़ा बाबा के पास पहुँचे...
लेकिन मैं अब क्या लिखूँ? कलम की स्याहियत हमारी बर्बर मानवता से कहीं अच्छी है। उसे कम से कम इतना तो पता है कि उसे क्या लिखना है और क्या नहीं। सच तो यह है कि अब वह बूढ़ा पुराने साल के साथ-साथ इस संसार को भी अलविदा कह चुका था
चलिए भाई, यह तो राज-काज है। यह तो हर जगह होता ही रहता है। अभी तो हमें बहुत सारे जरूरी काम है। हमें चाय की चुस्की लेते हुए देश को बदलना है। बिना हाथ बढ़ाये देश की रूपरेखा बदलनी है। लंबी-लंबी हाँकना है। बाईकों पर सवार होकर आते-जाते लोगों को छेड़ना है। अभी तो बहुत काम है....
ऐ जाते हुए लमहे अलविदा।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657