'विवादों के चक्रव्यूह में फंसा' तपस्वी'

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

सोशल मीडिया के ज़माने में किसी भी ख़बर या घटना को बिना तथ्यों को जानें कितनी तेज़ी से फैलाया जा सकता है; ये किसी से भी छुपा हुआ नहीं है। किसी व्यक्ति, संस्था या सरकार की नकारात्मक छवि पेश कर देना तो चुटकियों का काम है। हाल ही में ऐसी ही एक घटना सोशल मीडिया पर देखने को मिली जिसे देख और सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। 

यह मामला है देवसाक्षी पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित युवा लेखक सुनील पंवार का उपन्यास 'तपस्वी' का। तपस्वी एक उपन्यास है जो अभी मार्केट में आई भी नहीं और मार्केट में आने से पहले ही अपने धारदार संवादों की वजह से पाठकों के बीच चर्चा एवं आलोचना का विषय बनी हुई है। 

उपन्यास के किरदार तपस्वी ने जो रहस्य और रोमांच पैदा किया है उसे लेखक की काबिलियत का प्रतिबिम्ब कह सकते है। शायद ये पहली किताब है जिसके पब्लिश होने से पहले इतने चर्चे हैं व जिसने पाठकों को आकर्षित किया है। कुछ एक सिन्स लेखक ने फेसबुक पर पोस्ट किये, जिन्हें पोस्ट करते ही कभी पाठकों की वाहवाही लूटी तो कभी कड़ी आलोचना का शिकार हुए। 

खासकर इस किताब ने लोगों के मन में इसलिए भी इतनी उत्सुकता जगाई है कि फेसबुक ने इस किताब की पब्लिसिटी वाली हर पोस्ट को बैन कर दिया है। संभवतः 'तपस्वी' फेसबुक पर बैन होने वाली प्रथम पुस्तक है। फ़ेसबुक ने सारी पोस्ट हटा दी है तथा पुस्तक के कवरपेज और लिंक को पूर्णतः बैन कर दिया। विषय के अनुरूप कवर पेज जितना शानदार बना है उतना ही ज़ोरदार विरोध भी हुआ है। यही बात पुरवार करती है कि विरोध की आंधियो के बीच भी तपस्वी डटकर खड़ा है।

उपन्यास के विषय पर बात करें तो तपस्वी खुद को रावण कहलाना पसंद करता है। एक विलेन की छवि बनाए रखता है व ईश्वर तथा महिला विरोधी है। इस अनूठे विषय की खासियत ये है कि उपन्यास का मुख्य किरदार 'तपस्वी' विलेन होने के बावजूद हीरो की तरह पाठकों को आकर्षित करने में पारंगत है और सफल भी हुआ है। पाठकों को लगता है कि महिलाओं के बारे में नायक की सोच निम्न स्तरीय है और नारीवाद का विरोधी भी है; जिसकी वजह से कुछ पाठकों ने लेखक को जमकर गालियां भी दी है। इसके शीर्षक से लेकर संवादों तक एक विवाद छिड़ा हुआ है। 

शायद लोगों की मानसिकता यह भी हो कि उपन्यास का मुख्य किरदार खुद को तपस्वी कहकर काम शैतानों वाले करता है। क्योंकि सदियों से हम तपस्वी उन्हीं को मानते आए हैं जो हिमालय में जाकर कड़ी तपस्या और आराधना करते हैं, साधु संत होते हैं, जबकि तथ्य ये है कि तप किसी भी तरह का हो सकता है। जिसने सहकर, तपकर कोई भी काम किया हो वह तपस्वी कहलाता है। 

क्या पता तपस्वी ने भी कुछ काम ऐसे किए हों जिसे तपस्या की इन्तेहाॅं कह सकते है। सो हो सकता है उपन्यास के आगाज़ को उपन्यास का अंत गलत साबित कर दे।

 कोन्ट्रोवर्सी के बाद भी ताज्जुब की बात ये है कि तपस्वी के किरदार को महिला पाठकों ने बेहद पसंद किया है। और उपन्यास की मार्केट में आने से पहले धड़ाधड़ प्री-बुकिंग हो रही है। बावजूद उनके कि तपस्वी नारीवाद का विरोधी है ज़्यादातर महिलाएं ही अपनी प्रति बुक करवा रही है। 

कुछ पाठकों की मानसिकता ऐसी होती है कि लेखक जो लिखता है वो उसकी निज़ी ज़िंदगी का अंश होता है। या लेखक जो लिखता है असल ज़िंदगी में खुद भी वैसा ही होता है, या उसकी सोच भी वैसी ही होती है।‌ जबकि लेखन कल्पनाओं की संदूक से निकला काल्पनिक नाटक होता है। जो कभी सत्य के करीब, तो कभी हकीकत की धरा से परे भी होता है।

इसी मानसिकता के चलते फेसबुक पर कुछ लोग लेखक को भला बुरा कहने या यहाॅं तक कि गालियां देने पर उतारू हो जाते हैं। लेखक अपनी कल्पनाओं को, अपनी भावनाओं को शब्दों का पहरन पहनाकर परोसता है। बेशक कभी-कभी अपने साथ घटी कोई घटना का ज़िक्र अपनी रचनाओं में कर लेते है। लेकिन हकीकत में ज़्यादातर लेखन कल्पनाओं की संदूक से निकले दृश्य होते है। जिनका न तो हकीकत से कोई वास्ता होता है न लेखक की निज़ी ज़िंदगी की कहानी होती है। वर्क केवल पाठकों के मनोरंजन के लिए की गई लेखक की बेइन्तेहां मेहनत होती है।

मैं न नारीवाद की विरोधी हूं, न लेखक का पक्ष ले रही हूं। जिस सच को लोग नज़र अंदाज़ कर रहे है उनको आईना दिखा रही हूं।

तपस्वी के कुछ एक अंश लेखक ने सोशल मीडिया पर अपलोड किए है और इस  हिसाब से ये केवल आधी-अधूरी जानकारी कहलाएगी। किनारे पर बैठकर समुन्दर की गहराई नापी नहीं जाती, उसके लिए गोते लगाने पड़ते है। इसलिए जब तक पूरा उपन्यास पढ़ नहीं लेते तब तक किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना केवल जल्दबाजी होगी। 

नारीवाद का झंडा हाथ में लेकर घूमने वाले खुद बात-बात पर मां-बहन वाली गाली चिपकाने से नहीं कतराते, लेकिन स्त्री के बारे में एक हर्फ़ लिखने वाले लेखक को सोशल मीडिया पर खिंचाई करने शेर बनकर पहुंच जाते है। इनकी अल्पबुद्धि देखकर तो लगता है जैसे लेखक के साथ ऐसा व्यवहार करना इनके लिए केवल मनोरंजन का साधन मात्र है।

आलोचना या प्रशंसा करना पाठक का अधिकार है लेकिन जब तक शुरू से आखिर तक उपन्यास पढ़ा नहीं जाए तब तक लेखक को कटघरे में खड़ा करना नाइन्साफ़ी है। 

लेखक ने अपनी पुस्तक में रहस्य बनाकर रखा है। कथानक व चरित्रों को किसी भी तरह से रिवील नहीं किया है। लेखक एक मंझे हुए व सम्मानित लेखक हैं। उनके उपन्यास तपस्वी के हर डायलॉग के पीछे कोई न कोई तथ्य जरूर तो अवश्य रहा होगा। 

बहरहाल तपस्वी पढ़ने के बाद ही किसी उचित निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि लेखक के लिए आपकी राय बदलनी है या नहीं।  तब तक के लिए केवल पुस्तक आने का इंतज़ार है।

भावना ठाकर 'भावु'