गजल : "दिसंबर की सर्द रातें"

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क


ये दिसंबर, सर्द रातें, और आलम  तन्हाई का,

कितने दर्द जगाता है, इक झोंका पुरवाई का।


ये मौसम,ये बारिश,ये यादों का काफ़िला तेरा,

तड़पाता है कितना, हर लम्हा तेरी जुदाई का।


वो कसमें, वो वादे, वो छोड़  कर जाना  तेरा,

लिख रखा है मैंने सब, हिसाब पाई-पाई का।


याद है मुझे वो छोटी सी बात पे भड़कना तेरा,

बना  डाला  था  कैसे,  पहाड़  तूने  राई   का।


फिर कुरेद   कर ज़ख्म  मेरे, वो पूछना   तेरा,

असर  हुआ है  कि नहीं, तुम पर   दवाई का।


सी लेती है "सांँझ" उधड़े ज़ख्मों को अब तो,

सीख  लिया है  हुनर  हमने भी  तुरपाई का।


~सुशील यादव "साँझ"...✍️

नारनौल (हरियाणा)