युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
हमेशा देश के साथ विकासशील का टैग लगा रहता है। जैसे शोरूम में न बिकने वाली कमीज के साथ लगा मूल्य का टैग। कमीज बिके न बिके देश बिकता चला जाता है। सरकारी कंपनियों वाली दुधारु गाय जनता रूपी बछड़ों को छोड़कर सरकार रूपी ग्वाले के हाथों दूह ली जाती है और दे दी जाती है निजी व्यापारियों को जो उसका पनीर बनाकर मौज करेंगे। फिर चाहे बछड़े मरे या फिर गाय। क्या फर्क पड़ता है? ऐसे में जीते जी विकास को देखना किसी ताज्जुब से कम नहीं है।
कल कुछ ऐसा घटा जो इस देश में हर दिन घटता है। बस अंतर केवल इतना था कि मैं इस घटती हुई घटना को पहली बार देख रहा था। हुआ यूँ कि एक स्मार्ट सिटी के तमगे से चमचमाते शहर में झुग्गी-बस्ती वाला लड़का जिसके बदन से कंकाल जबरन बाहर निकलने की चीख-पुकार कर रहा था, रेल की पटरियों पर संडास करते हुए दिख गया। उसे देखते ही महात्मा गांधी की ऐनक याद हो आई जिसमें स्वच्छ भारत की स्वच्छता अपनी चरमोन्नत अवस्था को छू रही थी। यह रेल की पटरियाँ भी बड़ी गजब होती हैं! यह केवल बुलेट ट्रेन के लिए ही नहीं बुलेट प्रवाह सी उदर पीड़ा को निपटाने में भी काम आती हैं। देरी होने पर बुलेट का ‘लेट बू’ होने का खतरा बना रहता है।
बहरहाल कुल मिलाकर जीते जी विकसित देश का ऐसा दृश्य दिखाई दिया जिसके लिए मैं ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करता हूँ। बुलेटी प्रवाह वाली उदर पीड़ा की निपटान के लिए पटरी पर आसन जमाए स्वच्छ भारत की शोभा बढ़ाने वाले उस लड़के ने एक हाथ में मोबाइल थाम रखा था, जबकि दूसरी ओर बुलेट ट्रेन की प्रतीक्षा में पटरियाँ उतावली हुई जा रही थीं। यह दृश्य मानो ऐसा लगा जैसे विकास नाम का बालक स्वच्छ भारत की धरती पर हाथ में डिजिटल इंडिया थामे हुए बुलेट ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा हो।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657