और कितने हादसे देखेंगे पहाड़!

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

पहाड़ों के साथ छेड़छाड़ का एक और नतीजा बड़े हादसे के रूप में सामने आया है जिसमें उत्तराखंड स्थित उत्तरकाशी के बड़कोट में एक निर्माणाधीन सुरंग धसक गयी। उत्तरकाशी में ब्रह्मखाल-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर सिलक्यारा से डंडालगांव के बीच यह सुरंग बन रही है। इसमें करीब 40 मजदूर फंसे हुए हैं जिन्हें सुरक्षित निकालने के लिए पिछले 3 दिनों से प्रयास हो रहे हैं।

 केन्द्र के एनडीआरएफ तथा राज्य के एसडीआरएफ समेत अनेक विशेषज्ञ टीमें मलबे को हटाकर उन्हें निकालने हेतु प्रयासरत हैं। सुरंग के अंदर फंसे ज्यादातर प्रवासी मजदूर हैं- मुख्यतरू उत्तर प्रदेश के। आशा है कि बचाव टीमें इन्हें सुरक्षित निकालने में कामयाब होंगी। बताया गया है कि सुरंग के भीतर फंसे हुए मजदूर सुरक्षित हैं। वॉकी टॉकी के माध्यम से रेस्क्यू टीम का उनसे संपर्क बना हुआ है।

 उत्तरकाशी की मिट्टी बहुत नर्म है। इसके चलते ऊपर से चट्टानें, मिट्टी आदि लगातार नीचे गिर रही है। इसके कारण भी बचाव कार्य में बड़ी दिक्कतें आ रही हैं। पहाड़ों के साथ जैसा व्यवहार मनुष्य की ओर से हो रहा है उसका एक और उदाहरण इस हादसे के रूप में सबके सामने है। 

अब यह सोचने का वक्त आ गया है कि किस तरीके से पहाड़ों में विकास कार्य किये जायें कि प्रकृति को न्यूनतम नुकसान हो और कम से कम ऐसे दर्दनाक हादसे तो न ही घटें। उल्लेखनीय है कि इसी साल की जनवरी में जोशीमठ में कई जगहों पर जमीनों पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गईं। अनेक घरों में भी दरारें आई हैं जिसके कारण सैकड़ों लोगों ने जोशीमठ ही छोड़ दिया है। 

उन्हें अस्थायी शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी। आज भी यहां के लगभग 700 मकानों में दरारें देखी जा सकती हैं। यह कस्बा एक तरह से खाली हो गया है। पिछले साल अक्टूबर में उत्तरकाशी के ही भटवाड़ी इलाके में द्रौपदी के डांडा-2 पर्वत शिखर पर जोरदार बर्फीला तूफान आया था। इससे 34 पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी। इनमें 25 प्रशिक्षु थे जबकि 2 प्रशिक्षक थे।

 2013 में केदारनाथ की त्रासदी को कोई नहीं भूल सकता। यह हाल के वर्षों में उत्तराखंड की सर्वाधिक बड़ी त्रासदी मानी जाती है जिसमें पता नहीं कितने लोगों की मौत हो गई थी। आज तक यह ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता कि कितने लोग मारे गये। अक्टूबर 1991 में जोरदार भूकंप आया था जिससे करीब एक हजार लोग मारे गये थे। हजारों मकान भी पूरी तरह से बर्बाद हो गये थे। 

तब यह अविभाजित उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। ऐसे ही, काफी पहले पिथौरागढ़ जिले का माल्पा गांव भूस्खलन के चलते पूरी तरह से उजड़ गया था। इस हादसे में 255 लोगों की मौत हुई थी जिनमें कैलाश मानसरोवर जाने वाले 55 से ज्यादा श्रद्धालु थे। चमोली जिले में रिएक्टर स्केल पर 6.8 की तीव्रता वाले भूकंप के चलते 100 से अधिक लोगों को जान गंवानी पड़ी थी।

 इससे सटे हुए जिले रुद्रप्रयाग में भी भारी नुकसान हुआ था और अनेक घरों, सड़कों तथा जमीनों में दरारें आई थीं। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश समेत पूरी हिमालयीन पर्वत श्रृंखला अपेक्षाकृत पृथ्वी पर होने वाला नया प्राकृतिक निर्माण है। कुछ ही स्थलों को छोड़ दें तो कम आयु की यह पर्वतमाला ज्यादातर स्थलों पर कच्ची है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार इसका निर्माण अब भी जारी है।

 उसमें भी उत्तराखंड की मिट्टी तो और भी भुरभुरी होने के कारण पृथ्वी की परतों के नीचे होने वाली हलचलों का असर हिमाचल प्रदेश के साथ इसी क्षेत्र में सर्वाधिक पड़ता है। नेपाल में बार-बार आने वाले भूकम्पों का कारण भी यही भूगर्भीय हलचलें हैं।

 ये पहाड़ अपनी खूबसूरती के कारण देश-विदेश से करोड़ों लोगों को आकर्षित करते हैं। दरअसल उसके दिलकश नजारे ही उसके लिये अभिशाप बन गये हैं क्योंकि उनका आनंद लेने के लिये बड़ी संख्या में आने वालों के लिये ही निर्माण कार्य हो रहे हैं। यहां पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये हुए निर्माण कार्यों को यहां की आपदाओं के लिये प्रमुख रूप से दोषी बताया जाता है। 

जगह-जगह बनने वाले होटल, मकान, बहुमंजिला इमारतें, व्यवसायिक परिसर, रिसोर्ट्स, होमस्टे आदि के कारण जमीनों का प्राकृतिक स्वरूप तेजी से बदल दिया गया है। अंतरराष्ट्रीय सीमाएं लगने के कारण इस पूरे क्षेत्र का सैन्य महत्व भी है। सीमाओं पर चौकसी व उनकी सुरक्षा के लिये बड़ी सड़कें, पुल, सुरंगें आदि बनाई जाती हैं। इनसे भी पहाड़ों को नुकसान पहुंचता है। 

इन पहाड़ों में पनबिजली उत्पादन की भी अपार सम्भावनाएं हैं क्योंकि पर्वतों से निकलने वाली नदियों और नालों से बिजली संयंत्रों को पानी मिलता है। इसके लिये पानी के बहाव को मोड़ा गया है, बांध बने हैं, सुरंगें बनी हैं एवं विशाल निर्माण हुए हैं जिनसे बड़ी तादाद में बने विद्युत संयंत्रों को जल की आपूर्ति होती है। हाल के वर्षों में सरकारों द्वारा नयी सड़कें या उनका चौड़ीकरण, पुल, सुरंग आदि का निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहा है। इसके लिये होने वाले विस्फोटों व मशीनों के कारण भी पहाड़ों को भारी नुकसान होता है। 

इससे जलवायु में भी परिवर्तन हो रहा है। अब तो पहाड़ों के ऋ तु चक्र में तक बदलाव दर्ज हो रहे हैं। ऊपरी इलाकों में स्थित ग्लेशियरों के पिघलने के कारण इन पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का जल स्तर बढ़ने तथा भूगर्भीय जल के कारण सतह के ऊपर बड़ी टूट-फूट हो रही है। 

नये-नये निर्माण कार्यों के परिणाम ऐसी ही त्रासदियों एवं हादसों के रूप में सामने आ रहे हैं। विकास की आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता लेकिन इन त्रासदियों एवं हादसों को देखते हुए नियंत्रित व वैज्ञानिक तरीके से निर्माण किये जाने चाहिये।