युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
बाँध दिया उड़ती चिड़िया को,
क़ैद किये उसके सपनों को,
आज़ाद परों को दिये कुतर,
सजल नैन लिए जाये किधर?
चली आ रही समाज की यह प्रथा पुरानी,
लोगों के दायरे में सदा बंधती आयी है जननी।
क्यों दोयम दर्जा समाज है रखता?
क्यों उन्मुक्त उड़ान से हमें है रोकता?
माँ, बेटी,भार्या,बहु सब कुछ बन गई,
किंतु निज अस्तित्व से ही वंचित रह गयी।
बचपन से ही दी जाती है सीख उसे,
कहाँ,कितना और कब बोलना सिखाया जाता उसे।
पुरुषों के आज़ाद ख़्याल को सराहा जाता,
स्त्री के इसी स्वभाव को चरित्रहीन पुकारा जाता।
निभाती आ रही है सदा दो घरों की लाज जो,
अपना घर क्या होता है जान न पायी आज वो,
हँसकर थोपे हुए विचार को भी अंजाम है देती,
नारी वाकई तू स्वयं का संज्ञान न लेती।
उठो!अब अपनी लड़ाई तुम्हें
स्वयं ही लड़नी होगी,
न द्रौपदी,न उर्मिला बनो,
अपनी मंजिलें स्वयं तय करनी होगा।
डॉ. रीमा सिन्हा (लखनऊ)