साहित्य-वाहित्य!

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

‘‘देखो भैया बुरा नहीं मानना, बात बहुत सिंपल है, पहले समझने की कोशिश करो ....... नहीं तो कल को कहोगे कि ताने मारते हो। समझ लो..... बात यह है कि आज की तारीख में साहित्य-वाहित्य की तो बात ही करना बेकार है। सुबह से शाम तक आदमी को साँस लेने की भी फुरसत नहीं है ऐसे में किताब पढ़ेगा कौन?! बुरा नहीं मानना, आप लिखते-विखते हो, ... अच्छा ही लिखते होंगे, पर आपको पूछता ही कौन है?! मोहल्ले के लोग भी नहीं जानते होंगे कि आप जिन्दा हो कि मर गए। ... नहीं, .... बुरा नहीं मानना भैया ..... आपने बात निकाली तो बोलने में आ गया। सही है कि नहीं?’’

                       ‘‘भैया जमाना खराब है,  बुरा मत मानना, बात बिल्कुल सही है। हम लोग ठहरे हिन्दी वाले, ठीक है कि नहीं। आप जानते हो कि हिन्दी वाले काम धंधे वाले होते हैं और काम-धंधे का मतलब तो आप जानते ही हो। जिसमें पैसा नहीं मिले संसार में वो काम, काम ही नहीं है। हिन्दी वाले काम करते  हैं और देश की तरक्की में लगे पड़े हैं जी जान से। इसलिए हमको न साहित्य-वाहित्य से कुछ लेना देना है ना किताबों से। सुबह से शाम तक मेहनत करते  हैं, पैसा कमाते हैं। 

बहुत टेंशन हो जाता है,  तबियत तक ठीक नहीं रहती है, डाक्टरों के पास हर दूसरे दिन जाना पड़ता है। दिन भर दवाएँ खानी पड़ती है, बीच में समय निकाल के थोड़ा खाना भी खाना पड़ता है वरना घर की औरतें चिंता में पड़ जाती हैं। आप ही बताओ ऐसे में कौन-सी किताब और कहाँ का साहित्य-वाहित्य? हम तमिल या कन्नड़ लेखक तो हैं नहीं कि धूप में बैठे किताबों में फोकट माथा फोड़ते रहें। हर हफ्ते अपने सीए से माथाफोड़ी करने के बाद तो आदमी में कुछ करने की ताकत रही नहीं जाती है सिवा टीवी देखने के। उसमे भी कुछ समझ में नहीं आता है। 

                  हमें मौन देख कर वे फिर बोले - ‘‘आप तो चुप-ही  हो गए!  ऐसा है कि, बुरा नहीं मानना ...... हम लोग जिम्मेदारी लेकर चलने वाले लोग हैं। बाल-बच्चे लेकर बैठे हैं। उनकी तरफ भी देखना ही पड़ता है। पढ़ने-लिखने में तो कुछ नहीं धरा है, पर शादी तो समाज के हिसाब से ही करनी पड़ती हे। आज की तारीख में गिरी से गिरी हालत में शादी का खर्चा बीस-पच्चीस लाख से ऊपर ही जा रहा हे। ....  बुरा नहीं मानना.... आपको क्या है ...... कौन पूछता है!! .... पर हमको तो समाज में उठना-बैठना पड़ता है .... किताबों में समय बरबाद करना हमको अलाऊड नहीं है। दुन्यिा में आयें हैं तो दुनियादारी तो रखनी ही पड़ती है।’’

एक छोटा विराम ले कर वे फिर शुरू हुए, - ‘‘ चाय-वाय पियोगे आप? .... इच्छा नहीं हो तो कोई बात नहीं।  वैसे ही पूछ लिया आप बैठे हो तो। ..... बुरा नहीं मानना, .... वैसे-ही जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ कि एक लेख के कितने पैसे मिल जाते हैं आपको ?’’

                   ‘‘ ज्यादा नहीं, .... पांच सौ से हजार तक मिलते ही हैं।’’ हमने जरा बढ़ा कर बताना जरूरी समझा, कुछ अपनी इज्जत के लिए कुछ पत्र-पत्रिकाओं की। 

                     वे चौंके, - ‘‘ बस पाँच सौ रुपये!! इससे ज्यादा तो मंडी के हमाली कमा लेते हैं! हमाली तो ठीक हैं, आजकल भिखारी रोज हजार-दो हजार मजे में कमा लेते हैं। ..... पर आप बुरा नहीं मानना .... एक रिफिल से कितने लेख लिख लेते हो आप ?’’

                      ‘‘ आठ-दस तो हो जाते हैं आराम से । ’’

                    ‘‘ ऐं!! दस रुपए की कलम से पाँच हजार बना लेते हो!! धंधा तो ठीक है। ..... पाटनरशिप करना चाहोगे?  रिफिल तुम्हारी कागज हमारे ....... फिप्टी-फिप्टी ...... बोलो? ....... चलो चालीस-साठ कर लो....... नहीं? ……  ऐं?  …… स्नैक्स खाते हुए बात करते हैं। ’’

                   उन्होंने आवाज लगाई , ‘‘ऐ छोरे ...... दो समोसे दो चाय कट मारके।’’

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657