युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
श्री श्री रविशंकर : जीवन में प्रत्येक सुख को यदि हम ध्यान से देखेंगे, तो पाएंगे कि उस सुख के साथ कोई न कोई मूल्य चुकाना पड़ता है, जिससे सुख, दुख में परिवर्तित हो जाता है। चाहे किसी घटना में कितना भी आनंद क्यों न आए, अंत में वह दुख में बदल जाता है। जितना अधिक सुख होता है, उतना ही अधिक दुख भी होता है। किसी वस्तु को पाने की इच्छा कठिनाइयों से भरी होती है। जब हम उसे प्राप्त कर लेते हैं, तो मन में उसे खोने का भय बैठ जाता है। जब हम उसे खो देते हैं, तो बीते समय की यादें हमें दुखी कर देती हैं।
इस सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो दुखविहीन हो। साधना करने में व्यक्ति को अभ्यास करना पड़ता है और वह कष्टदायी है। साधना न करने पर और भी अधिक कष्ट मिलता है। पीड़ा और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रेम में पीड़ा होती है और बिछड़ने में उतना ही दुख भी होता है। किसी को प्रसन्न करने का प्रयास दुख देता है, यह जानना और समझना कि वे प्रसन्न हुए कि नहीं, यह भी दुख का कारण होता है।
आप जानना चाहते हैं कि दूसरे व्यक्ति का मन कैसा है, लेकिन यह संभव नहीं है, क्योंकि आप अपने ही मन को पूरी तरह नहीं जानते हैं। यदि आप एक ज्ञानी की दृष्टि से देखेंगे तो पाएंगे कि स्वयं को अपनी परिस्थितियों से अलग होकर न देख पाना ही दुख का मुख्य कारण है। इस दुख को समाप्त कैसे करें? तीन बातें हैं-आत्मा, द्रष्टा और दर्शन। अल्पदृष्टि से दुख होता है।
हम अपने जीवन को अपने भीतर नहीं, कहीं और रखते हैं। कुछ लोगों के लिए उनका जीवन उनके बैंक खाते में है। यदि बैंक बंद हो जाए तो उस व्यक्ति को दिल का दौरा पड़ सकता है। आप जिसको भी जीवन में अधिक महत्व देते हैं, वही दुख का कारण बन जाता है। ध्यान के माध्यम से, आप अनुभव कर सकते हैं कि आप शरीर नहीं हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि आपको दुनिया से भागना है। यह दुनिया आपके आनंद के लिए है, लेकिन उसका आनंद लेते हुए अपने आत्मस्वरूप को नहीं भूलना है।
विवेक यह बोध है कि आप अपने आप से अलग हैं। जब आप यह अंतर समझ जाते हैं कि द्रष्टा दृश्य से अलग होता है, तब वह दुख समाप्त करने में सहायता करता है। सारी सृष्टि पांच तत्वों और दस इंद्रियों से बनी है, पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां। यह पूरी सृष्टि आपको आनंद और विश्राम देने के लिए है। जिससे भी आपको आनंद मिलता है, उसी से आपको राहत भी मिलनी चाहिए, अन्यथा वही आनंद, दुख बन जाता है। जो ज्ञान में जाग्रत हो गया है, उसके लिए संसार बिलकुल भिन्न है। उसके लिए कोई पीड़ा नहीं है।
उसके लिए इस सृष्टि का हर कण आनंद से या आत्मा के अंश से ही भरा हुआ है। दुख को जड़ से समाप्त करने के लिए यह तत्व ज्ञान आवश्यक है। पूरा ब्रह्मांड तरल है। शरीर, मन और यह सारा संसार निरंतर परिवर्तित हो रहा है। तत्व ज्ञान यह है कि, 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं आकाश हूं, मैं अविनाशी, अछूता हूं।' यह तत्व ज्ञान हमें इस चक्र से बाहर निकाल सकता है।