युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
जंगली जंगल में बहुत जानवर थे। शहरी जंगल में भी बहुत जानवर थे। ये जानवर उन जानवरों से और वे जानवर इन जानवरों से कतई बात नहीं करते थे। इसीलिए उस जंगल के मोर, हाथी, बाघ, ऊदबिलाव, साँप, बिच्छू, कीड़े-मकौड़े किसी को भी यह बताने की जरूरत नहीं थी कि वे मोर, हाथी, बाघ, ऊदबिलाव, साँप, बिच्छू, कीड़े-मकौड़े हैं। किंतु उन्हीं जंगलों में एक आदिवासी औरत रहती थी। उसे शहर के दारोगा बाबू ने थाने में जबरन एक हफ्ते से बैठा रखा है। बार-बार एक ही सवाल करता है कि अपनी पेटीकोट उतारो। मुझे देखना है कि तुम औरत हो कि नहीं। उसने अपनी पेटीकोट नहीं उतारी।
दारोगा ने कहा – तुम्हारी दूधमुँही बच्ची रोती-बिलखते तड़प रही होगी। पेटीकोट उतारकर बता दो कि तुम औरत हो। मैं तुम्हें जाने दूँगा। तब भी उसने पेटीकोट नहीं उतारी।
दारोगा ने फिर कहा – तू नक्सली है। जा मेरे लिए माँस-मछली बनाकर ला। दारू ला। पहले बाहर की फिर भीतर की भूख मिटा फिर प्यास बुझा। नहीं तो अपनी पेटीकोट उतारकर बता कि तुम औरत हो। फिर भी उसने पेटीकोट नहीं उतारी। वह थूक भरे मुँह से उसकी पेटीकोट खोलने लगा। वह पीछे हटी। भागने लगी। उसने नक्सली रांड कहकर उसकी पिंडली पर गोली चलाई।
काश उसे पता होता कि आदिवासी औरत पेटीकोट नहीं पहनती। उसे कैसे पता चलेगा? वह तो शहरी जंगल का दारोगा है। उसे तो सिर्फ भूख और प्यास लगती है। वह भी हवस की।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, चरवाणीः 7386578657