युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
वे राजस्व विभाग में पैसों से नहाते हैं। किंतु आज वे बड़ी देर से रोये जा रहे हैं। लगता है मानों बाढ़ इन्हीं की आँखों में आयी है। कहते कम हैं रोते ज्यादा हैं। रहते तो हमारी कॉलोनी में ही हैं लेकिन कमाई इतनी कि अपने लोगों से मिलने की फुर्सत नहीं है। उनका मानना है कि अपनों से मिलने पर मान घट जाता है।
दूर अमेरिका में बैठे अनजान से चैट कर लेंगे लेकिन पड़ोस में रहने वाले गुप्ता अंकल के एक्सीडेंट होने पर मिजाजपुर्सी करने कतई नहीं जायेंगे। भला स्टेटस भी कोई चीज़ होती है। मुँह उठाए किसी के घर चल देना निकम्मेपन की पहली निशानी है। वे तो कान, मुँह, हाथ पर एप्पल चिपकाए दुनिया भर की पल-पल की खबर रखते हैं।
हाँ तो मैं आपको बता रहा था कि वे निर्बाध गति से रोए जा रहे हैं। मैंने केवल हाल पूछने की गलती क्या कि उनका छुटका रोतू मुँह भाखड़ा नंगल की तरह पूरा खुल गया। बोले – हमें कल रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ लिया गया। जबकि हमारे हाथों का रंग हमेशा से वही था जो अब है। मैं भ्रष्टाचार विभाग को लाख समझाकर थक गया कि यही मेरे हाथों का रंग है, लेकिन वे हैं कि मानते नहीं।
न जाने उनको मेरे इस रंग से क्या खुन्नस है कि हाथ धोकर पीछे पड़ गए हैं। रंग तो रंग है। इतने रंगों में एक रंग यह भी सही। सुखी जीवन के लिए इससे बढ़िया रंग और क्या हो सकता है। मेरा बस चले तो इसे पूरे बदन भर लगा लूँ। फिर भी जितना मिलता है उससे काम चला लेता हूँ। मुझ जैसा आत्मसंतुष्ट कोई हो सकता है भला? यह रंग एक बार जिसके हाथ लग जाए वह जीवन भर उसे छुड़ाने की कोशिश न करे।
वैसे भी हमने देने वालों से कभी कुछ माँगा नहीं। देने वालों ने भी कभी देते समय हमसे कुछ पूछा नहीं। वे धर देते थे हम उठा लेते थे। हमारा लेना देने वाले को और देने वाले को हमारा लेना कभी अखरा नहीं। हम दोनों में कुछ यूँ अंडरस्टैंडिंग थी कि शादी कर लेते तो मरते दम साथ नहीं छोड़ते। लेकिन भ्रष्टाचार विभाग यह बात समझे तो।
भ्रष्टाचार विभाग ने लेन-देन को अपने शब्दों में इसे रिश्वत कहा। भला लक्ष्मी कब से रिश्वत कहलाने लगी। लक्ष्मी का काम ही एक स्थान से दूसरे स्थान आना-जाना होता है। कभी इधर तो कभी उधर। लक्ष्मी अपने स्वामी को और स्वामी अपनी लक्ष्मी को खुले में ढूँढ़ ले तो यह भला रिश्वत का पाप कैसे कहलाएगा।
क्या लक्ष्मी के लिए स्वामी हाथ नहीं बढ़ा सकता? मैंने देने वाले के लिए कई काम किए थे। सरकारी ठेकों के नाम पर व्यर्थ के रुपए गंवाने से बचाया था। जो बचाए थे उसी में से कुछ पाया था। जो बचा उसी में से लेना भला रिश्वत कैसे कहला सकता है? मैं बरसों से यही काम कर रहा हूँ दुर्भाग्य से परसों-परसों बना भ्रष्टाचार विभाग अब मुझे पैसों के लिए ‘तरसो’ कह रहा है।
मैंने कहा लक्ष्मी जिसे तरसाए वह गरीब जरूर हो सकता है लेकिन रिश्वतखोर कतई नहीं। लक्ष्मी पर लक्ष्मी की कोठी बनाकर उसे उसी में कैद करना रिश्वतखोरी है। मैं तो लक्ष्मी के रूप बदलकर कभी कार तो कभी कुछ खरीदकर उसका सम्मान करता हूँ। उसी से मैं नाम कमाता हूँ। नाम कमाने वाला कुछ ही हो सकता है लेकिन रिश्वतखोर कतई नहीं।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’