भटक रही हो कविता

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 


निरर्थक सी भटक रही हो कविता,

कभी इस समूह तो कभी उस समूह,

कभी सम्मान पत्र पाने की चाहत तो

कभी सम्मान पत्र देने की ललक,

और अखबारों में छपने को भी,

सदा आसक्त रही हो कविता।


जाने कहाँ गये वो दिन जब,

भावों के प्रस्तर पर शब्दों की

निरंतर छेनी चलती थी।

इक नक्काशीदार कविता,

तब पन्नों पर उभरती थी।

जाने कहाँ गयी वो रातें,

जब तारों को देखकर

अनगिनत भाव उमड़ते थे,

बादलों की गर्जन 

वेदना के स्वर भरते थे,

जब देख चातक को

अहर्निश आँसू बहते थे,

सच्चे सच्चे मनोभाव लिए

तब रच जाती थी कविता।

आज तुम मुझसे ही अनजान,

मेरे करीब पर नहीं रही मुझको पहचान।

नीरव करके मेरे मन को,

शब्द कोष वृहद रही हो कविता।


मुझे वापस तुझको लाना है,

ज्वाल में तपकर तुझको पाना है।

भटकना नहीं अब कभी भी,

तुम ही मेरी सखा-सहेली।

मेरे अपूर्ण इस जीवन का,

तुम ही अवलंब रही हो कविता।


         डॉ.रीमा सिन्हा (लखनऊ)