मराठा आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा घिरी

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के मुद्दे ने जिस तरह तूल पकड़ लिया है, उससे एक बार फिर भाजपा सरकार की अक्षमता साबित हुई है। गौरतलब है कि इस महीने की शुरुआत में यानी 1 सितंबर को जालना के अंबाद तहसील के अंतरवाली सारथी गांव में मराठा आरक्षण की मांग पर हिंसा भड़क गई थी। आरोप है कि आरक्षण की मांग कर रहे प्रदर्शनकारी पुलिस से भिड़ गए और कथित तौर पर उन पर पथराव किया।

 पुलिस ने बाद में प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया और आंसू गैस का इस्तेमाल किया, जिसमें लगभग 20 प्रदर्शनकारी और 37 पुलिसकर्मी घायल हो गए। 15 से अधिक राज्य परिवहन बसों को आग लगा दी गई। पुलिस ने कहा कि हिंसा के सिलसिले में 360 से अधिक लोगों पर मामला दर्ज किया गया है।

भाजपा सरकार ने शायद इस बात की उम्मीद की थी कि बल प्रयोग के बाद मामला शांत हो जाएगा, लेकिन हुआ इसका उल्टा। अब मामला इतना बढ़ गया है कि गठबंधन सरकार के घटक दलों यानी भाजपा, शिवसेना, और एनसीपी अलग-अलग राह पर चल रहे हैं। और इनके अलावा मनसे के राज ठाकरे जैसे कुछ और किरदार इस मामले में अहम भूमिका में आने की कोशिश में दिख रहे हैं। 

मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के लिए तो यह चुनौती है ही, साथ ही यह भाजपा नेतृत्व के लिए भी गंभीर संकट है, क्योंकि भाजपा शासित राज्यों में एक के बाद एक हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं। मणिपुर के हालात अब तक संभले नहीं हैं। हरियाणा में नूंह की हिंसा के बाद माहौल तनावपूर्ण बना हुआ है और सांप्रदायिक वैमनस्य की जो लकीर खींच दी गई है, वो न जाने कब मिटेगी।

 उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, असम जैसे राज्यों से वंचित समुदायों पर अत्याचार की खबरें जब-तब आती रहती हैं। कहा जा सकता है कि जिस डबल इंजन सरकार का दंभ प्रधानमंत्री मोदी कई मंचों से भरते आए हैं, उसमें खोखलेपन के सिवा कुछ नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र में जनता द्वारा निर्वाचित सरकार की जवाबदेही जनता के प्रति हो, तो काम अच्छे से चलता है। 

लेकिन जब डबल इंजन कहकर उस पर पार्टी विशेष का ठप्पा लगाया जाता है, तो फिर हालात इसी तरह बेकाबू होते हैं, जैसे मणिपुर में हो चुके हैं और अब महाराष्ट्र में हो रहे हैं। मराठा आरक्षण की मांग महाराष्ट्र मंडल आयोग के बाद से ही उठनी शुरु हुई है।

 महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा समुदाय का दबदबा रहा है, लेकिन मराठा शिक्षा और सरकारी नौकरी में भी अपने लिए आरक्षण की मांग करते रहे हैं। 2012 में मराठा आरक्षण की मांग ने तूल पकड़ा, तब राज्य में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार थी और अगले चुनाव में उसे जीतना मुश्किल लग रहा था। पृथ्वीराज चव्हाण सरकार ने कांग्रेस नेता और मंत्री नारायण राणे की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। 

कमेटी के सुझाव के आधार पर मराठा समाज को सरकारी नौकरियों में और शिक्षा संस्थाओं में 16 प्रतिशत आरक्षण मंजूर कर अध्यादेश भी जारी कर दिया। इसी कमेटी की सिफारिश पर मुसलमानों को भी 5 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की गई। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस एनसीपी अपनी सरकार नहीं बचा पाई। 2014 में राज्य में भाजपा-शिवसेना की सरकार बनी और देवेंद्र फड़णवीस मुख्यमंत्री बने। 

2018 में फिर मराठा आरक्षण के लिए बड़ा आंदोलन हुआ था। इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने विधानसभा में विधेयक पारित किया और राज्य की सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में मराठाओं को 16 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान किया गया था। 

इस के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका लगाई गई। बॉम्बे हाईकोर्ट ने आरक्षण रद्द नहीं किया था। हालांकि, इसे घटाकर शिक्षण संस्थानों में 12 प्रतिशत और सरकारी नौकरियों में 13 प्रतिशत कर दिया। हाईकोर्ट ने कहा था कि अपवाद के तौर पर 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा पार की जा सकती है। इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी और 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण के फैसले को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था। 

अब एक बार फिर मराठा समुदाय आरक्षण की मांग को लेकर सड़कों पर उतरा। लेकिन इस बार घटनाओं ने अप्रिय मोड़ ले लिया है। प्रदर्शनकारियों पर पुलिस का लाठीचार्ज गठबंधन वाली भाजपा सरकार पर भारी पड़ता दिख रहा है। हालात ऐसे हो गए हैं कि सरकार को हड़बड़ी में एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर अपनी सफाई पेश करनी पड़ी। भाजपा खुद को आरक्षण की राजनीति के पीड़ित के तौर पर पेश करती दिख रही है। 

उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि जालना में जो घटना हुई वह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण थी। कोई भी इस तरह की हिंसात्मक कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकता। हमने पहले कभी बल प्रयोग नहीं किया था। न ही अब करने का इरादा है। श्री फड़णवीस हिंसात्मक कार्रवाई को गलत बता रहे हैं, लेकिन पहले उन्होंने ही कहा था कि गांववालों ने लाठी चार्ज किया तो पुलिस को बलप्रयोग करना पड़ा। 

राज्य के उपमुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस घटना का राजनीतिकरण किया गया। एक नैरेटिव सेट किया गया कि लाठीचार्ज का आदेश गृह मंत्री विभाग और मंत्रालय से दिया गया था। विरोधियों को भी पता है कि ऐसे आदेश एसपी और डिप्टी एसपी के स्तर से आते हैं। 

दरअसल कांग्रेस और उद्धव ठाकरे की शिवसेना से सवाल उठाए गए थे कि किसके आदेश पर लाठीचार्ज हुआ। अब श्री फड़णवीस इसका जिम्मा एसपी और डीएसपी पर डाल रहे हैं। उनसे पूछा जा सकता है कि क्या राज्य की पुलिस सरकार के नियंत्रण से परे है, जो स्वतंत्र रूप से इतना बड़ा फैसला ले ले।

जिस तरह मणिपुर में भाजपा सरकार अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ती रही है और कभी आंदोलनकारियों पर, कभी पुलिस पर हालात बिगाड़ने का इल्जाम लगता रहा है, वही टालमटोल का रवैया महाराष्ट्र में दिख रहा है। एक मुख्यमंत्री और दो-दो उपमुख्यमंत्रियों के रहते अगर लाठीचार्ज जैसे फैसलों की भनक सरकार को न लगे, तो क्या इसे सरकार की अक्षमता नहीं माना जाना चाहिए। 

बहरहाल इस मामले में कुछ अधिकारियों पर सरकार ने कार्रवाई की है और मुख्यमंत्री श्री शिंदे ने प्रदर्शनकारियों से कहा है कि हम मराठा आरक्षण और अदालत को समझाने के लिए आवश्यक अंतर्दृष्टि और दस्तावेजीकरण प्रदान करने की दिशा में काम कर रहे हैं। 

हम आश्वासन देते हैं कि मराठा आरक्षण प्रदान करने के लिए जो भी करना होगा हम करेंगे। मैं मराठा समुदाय से हमारे साथ धैर्य रखने की अपील करता हूं। मुख्यमंत्री की धैर्य की अपील कितनी कारगर होगी, ये देखना होगा। फिलहाल अगले चुनाव के पहले मराठा आरक्षण का मुद्दा फिर खड़ा होना भाजपा के लिए बड़ी चेतावनी बन चुका है।