"कहाँ है समानता"

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

महिलाएं समाज का अभिन्न अंग है, जिसके बगैर घर परिवार समाज की कल्पना करना मुश्किल है। एक साथ कितनी भूमिकाएं निभाने वाली और हर विपरीत परिस्थितियों के सामने सीना तान कर लड़ने वाली नारी को आज भी उसका सही स्थान देने में समाज हिचकिचाता है। सालों पहले जब महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था तब महिलाओं ने समान हक पाने का संघर्ष करते अधिकार पाया था, तब से 26 अगस्त को हम वूमेन इक्वालिटी दिवस मनाते तो है। पर क्या आज भी स्त्रियों को समान हक मिलते है? 

आज भी 50 प्रतिशत महिलाओं को अपने हक की लडाई लड़नी पड़ रही है।

लगातार चलने वाले संघर्ष का परिणाम स्त्रियों को मिला ज़रूर है पर किश्तों में। धीरे-धीरे नारी अपने अधिकारों की एक कड़ी दूसरे से जोड़ कर आगे बढ़ रही है और सबल बनने और बने रहने की सतत प्रक्रिया में क्रियाशील है।

क्या मिलती है हर बेटी को अपनी इच्छा के अनुसार पढ़ने की आज़ादी, अपनी मन मर्ज़ी की नौकरी या व्यापार करने की आज़ादी, अपने मन का खाने या पहनने की आज़ादी? नहीं यह सारे निर्णय आज भी कई घरों में पिता, भाई, पति या ससुर ही लेते है। कहाँ है इक्वालिटी?

हमने अपनी बेटी को पूरी आज़ादी दी है यह वाक्य हम अक्सर सुनते हैं। लड़की अगर एक वक़्त अपनी मर्ज़ी का खाना खा ले या किसी दोस्त से मिलने चली जाए या फिर अपना कॉलेज या करियर अपने मन से चुन ले तो परिवार अपने आप को आज़ाद ख़्याल बताता है। वहीं दूसरी तरफ़ अगर बेटी को तय समय के हिसाब से घर लौटने में थोड़ी देर हो जाए या अपनी मर्ज़ी से चुनी हुई पढ़ाई में नंबर कम आ जाएँ तो यही वाक्य, ज़्यादा आज़ादी दे दी तुम्हें इसी का नतीजा है में बदल जाता है। 

घर के काम और खाना बनाना जैसे काम घर में बेटे और बेटी को बराबर से सिखाए जाने चाहिए। खाना बनाना और घर संभालना पुरुष और स्त्री का बराबर से उत्तरदायित्व होना चाहिए। किसी भी नौकरी या व्यापार को जेंडर के हिसाब न बांटा जाए। महिलाओं को अपना करियर किस क्षेत्र में चुनना है ये उनका ही फैसला होना चाहिए। तब कहा जाएगा कि समाज में इक्वालिटी है।

लड़कियों के लिए माहौल सुरक्षित नहीं तो उसे सुरक्षित बनाना चाहिए न कि उनके जीवन को प्रभावित किया जाना चाहिए। ऑफ़िस के काम, किसी पार्टी या इमरजेंसी में देर रात घर से बाहर रहना पड़ जाए तो डरे बिना महिला घर वापस लौट सके उसे इक्वालिटी कहते है।

हर क्षेत्र में काम करने वाली प्रगतिशील महिला को चरित्रहीन न समझा जाए बस इस बात की आज़ादी चाहिए। लड़की का जन्म शादी और बच्चे पैदा करके किसी का घर संसार बसाने के लिए हुआ है, इस मानसिकता से मुक्ति दिलाईये तभी इक्वालिटी का ब्युगूल बजाईये।  पढ़-लिखकर और करियर बनाकर भी चूल्हा-चौका ही तो संभालना ही है, इस सोच से आज़ादी मिलेगी तब इक्वालिटी दिखेगी।

और इक्वालिटी कि सबसे बड़ी तौहिन ये है कि लड़कियों की परवरिश इतना नाप-तौल के साथ की जाती है कि वे फिर जीवन भर अपने हर कदम पर डरती है। क्यों बेटे बेटी में फ़र्क करता है समाज? परिवार के बेटों की तरह बेटी भी बेफ़िक्री और थोड़ी सी लापरवाह क्यों नहीं हो सकती? बेटियों को हर बात पर बंधन क्यूँ।

बेटी के कंधों पर मान-मर्यादा, ममत्व, सहनशीलता, त्याग और समझौते का बोझ न डालें। बेटी को भी उसका सही गलत चुनने का समान अधिकार दें। उसे उसके हिस्से की गलतियाँ करने दीजिए। विशाल फ़लक की वो भी हकदार है।

बस इतना करें कि बेटी के जन्म के साथ ही उसे सर्वश्रेष्ठ स्त्री बनाने की होड़ से उसे आज़ादी दें। बेटे के बराबर पालें और  समाज को सही मायने में स्वस्थ बनाना है तो बेटी को अपना वजूद महसूस करवाकर इक्वालिटी का तोहफ़ा दें।

(भावना ठाकर, बेंगुलूरु) #भावु