मूरखद्वीप का अफ़साना

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

घोषणा हुई कि जनतांत्रिक पागल जिसके गले में माला डाल देगा वही मूरखद्वीप का अगला शिक्षा मंत्री होगा। पागल ने सड़क किनारे सुस्ताती कुतिया के गले में माला डाल दी। पागल को पता था कि परसाई ने शिक्षा को सड़क किनारे पड़ी कुतिया बताया था जिसे हर कोई लतिया कर चला जाता है। कुतिया मूरखद्वीप की शिक्षा मंत्री हो गयी। मूरखद्वीप सरकार यों भी दुम पर ज्यादा गौर करती है योग्यता पर कम। लेकिन लात मारने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ना था। 

उनकी टांगे फड़क रही हैं। मूरखद्वीप समझदार इक्के-दुक्के बचे थे, जो बुद्धिजीवी के नाम से यहाँ-वहाँ दिख पड़ते थे। वे लाख चिल्लाएँ उस द्वीप के लोगों पर जूँ तक नहीं रेंगता था। उनकी कलम मूरखद्वीप की मधुशाला के सामने हाँफ रही थी। कुतिया ने बुद्धिजीवियों को ऐसा काट खाया कि उन्होंने अपनी कलम छोड़ अंडर ग्राउंड हो गए।

शिक्षा विभाग में सबसे पहले न नुकूर करने वालों की भाषा को ले कर उठापटक शुरू हुई। मंत्रालयों में उठापटक को चिंतन कहने की आदर्श परंपरा है। मूरखद्वीप में अफसरों की भाषा और न नुकूर करने वालों की भाषा अलग-अलग है। लोग भाषा के बल पर कट मरते हुए आगे निकल जाते हैं। अंग्रेजी फर्राने वाला वकील देसी जज को हलुवा समझते हुए गप से खा जाता है। बहस के दौरान जज मुद्दों से कम भाषा से अधिक जूझता है। शिक्षा व्यवस्था पर सबसे पहले यही सवाल आया कि भाषा का ये हथियार कैसे जब्त किया जाये। क्योंकि मंत्रालय में भी बड़ी दिक्कत होती है। अफसर भाषा के बल पर अपनी सरकार चलाते हैं। 

मंत्री बेचारा मात्र सरकारी लेटरपेड बन कर रह जाता है। तो सुझाव आया कि सरकार हिंदी में चले। हालाँकि सवाल ये उछले कि क्या नेताओं को सही हिंदी आती है। जवाब गया कि अफसरों को हिंदी में समझाने लायक तो आती है। सरकार के लिए इतना ही काफी था। अब सारे जरूरी काम हिंदी में होंगे। अंग्रेजी के अख़बार भी हिंदी में छपेंगे। शिक्षा मंत्री ने फरमान जारी किया कि स्कूल कालेजों में पढ़ाई हिंदी में होगी। जो ज्ञान-विज्ञान अंग्रेजी में है उसे फ़िलहाल देशभक्त दीमकों के लिए अलमारियों के हवाले करें।

प्रजातांत्रिक व्यवस्था में युद्ध जुबान से लड़े जाते हैं कलम से नहीं। फलां कवि होते तो उन्हें कहना पड़ता ‘जुबान चली कैंची सी, कलम सुन-सुन मर जाय’। लाचार जनता गाय सी होती है, आम दिनों में दुत्कार और चुनावों के दिनों में पूजी जाती है। अशिक्षा और गरीबी दो अनमोल रतन हैं मूरखद्वीप के। अशिक्षा से गरीबी लिंक है, गरीबी से वोट और वोट से सत्ता। जुमलों में बोल भले ही दें कि हटायेंगे लेकिन जिस डाली पर बैठते हैं उसे कौन काटता है भला ! अशिक्षा तो डर का घर भी है। 

जो डर गया वो सरकार का हो गया। कुछ थे जो कभी गरीबों के हक़ की बात किया करते थे। पता नहीं किस नागाभूमि  में जा बसे हैं। वो भी थे जो बाबासाहब  की बातों पर गौर किया करते थे। उनके शिष्य अब बाबाजिओं को झूमते सुन रहे हैं। अन्धविश्वासी और भक्त यूँ ही नहीं हो जाते हैं लोग। चमत्कारों के बिना यह संभव नहीं है। और सत्ता के समर्थन से बड़ा कोई चमत्कार क्या हो सकता है ? ज्ञान-विज्ञान और बाबाओं के बीच सरकार जुबानी जंग लड़ रही है। घोषणाओं-भाषणों की जुबान, उद्घाटनों-शिलान्यासों की जुबान, नारों-विज्ञापनों की जुबान। इन हवाओं में जुबानों से पूरा युद्ध लड़ा जाता है।         

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार