वे कहते थे कि इतनी गंदी चोरी कोई अपना रिश्तेदार ही कर सकता है। आखिर ज़माने में उसे ही जीना है जो इस कला को अच्छी तरह से जानता हो। चोरी किया हुआ माल बहुत वज़नी होता है और मौक़ा बे मौक़ा फ़िल्मी गीत के बाज़ूबंद की तरह खुल खुल जाता है। हमेशा एक नजर उसी वस्तु पर गड़ाए रखने का अपना ही सुकून है। यदि चोरी गर्मी में हो तो मुंह पर लू के थप्पड़ खाने में भी परहेज नहीं होता। ऐसे समय में पाजामे से एयर-कंडिशिनिंग कर लेने का अपना ही सुख है। मतलब ये कि चोरी का समान काँख में दबाए घुट्नों-घुट्नों पानी में भिगो कर, सर पर अंगोछा डाले, तरबूज़ खाते।
ख़स-ख़ाना व बर्फाब की कहीं कमी न थी। वे उसके मोहताज भी न थे। कितनी ही गर्मी पड़े, अपनी लत नहीं छोड़ते थे। अक्सरकहा करते - भैया! ये तो बिज़नेस, पेट का धंधा है। जब चमड़े की झोंपड़ी (पेट) में आग लग रही हो तो क्या गर्मी क्या सर्दी। लेकिन ऐसे में कोई शामत का मारा गाहक आ निकले तो बुरा भला कहके भगा देते थे। इसके बावजूद वह खिंचा-खिंचा दोबारा उन्हीं के पास आता था, इसलिए कि मतलबियों का मतलब पूरा करना वे अच्छी तरह से जानते थे। धंधा सामान बेचने से नहीं, कमजोरी को नकद में बदलने से चलता है। कहते थे, धोखेदारी वाले सामान बंदे ने आज तक नहीं बेची। सामान और दाग़दार? दाग़ तो दो ही चीज़ो पर सजता है इंसान और उसकी करतूत पर।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार