शब्द कितने भोले-भाले होते हैं
जिसने लिखा उसी के हो जाते हैं।
कोई बैर नहीं, कोई द्वेष नहीं बस
लिखने वाले के नन्हे-मुन्ने शिशु बन जाते हैं।
कलम की उंगली पकड़ कागज की
सपाट राहों पर चलना जल्द ही सीख जाते हैं।
निहारते नहीं वो कोई काली बदली
लेखक की गोदी से फिसल उसके
अंतर्मन में कहीं खो जाते हैं।
एक मासूम जैसे खेलता घर के प्रांगण में
वैसे ही खेलते वे मन-मस्तिष्क के विचारों में।
वाणी पर बैठ हर भाव दर्शातें हैं
कष्टों को सहलाते, पीड़ा पर मरहम लगाते हैं।
व्यवहार बनाते, आंखों में नमी लाते तो
कभी उलटफेर कर जिह्वा पर, हृदय के भाव छुपाते।
शब्दों के खेल से ही सारे रिश्ते-नाते निभ जाते हैं
और गर आघात दिल पर करें तो बात बिगड़ जाते है।
शब्द ही पहचान बनाते, ज्ञान दिलाते, राह दिखाते
चक्रव्यूह में इनके फंस भले, बुरे बन जाते।
शब्दों के गलत चयन से नाश है
उचित चुनाव जीवन का प्रकाश है।
-वंदना अग्रवाल 'निराली'
लखनऊ, उत्तर प्रदेश