एडमिन महाप्रभु की जय हो

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

वाट्सप के मैसेजस पढ़ने से फोकट का ज्ञान बहुत मिलता है। ज्यादातर तो यह बंटाधार करता है, लेकिन कभी-कभार हम जैसे दसवीं में पाँच बार लुढ़क्की मारने वाले की किस्मत भी चमका देता है। हुआ यूँ कि हम उन दिनों खुली भैंस की माफिक जहाँ-तहाँ वाट्सप के अलग-अलग समूहों वाले खेत चरने का शौक रखते थे। कई वाट्सप खेत के मालिक वही होते थे लेकिन मुद्दे की फसल बदल जाती थी। वाट्सप मक्खी उड़ाऊ बैच के लिए बड़ी काम की चीज़ है। अगर आप में मक्खी उड़ाने का टैलेंट है तो आ जाओ वाट्सप के मैदान में। आपको ऐसे-ऐसे मक्खी उड़ाऊ मिलेंगे कि नानी याद आ जाएगी।

एक दिन हमारा पाला एक बुढ़ऊ मक्खा से पड़ गया। यहाँ हम नर मक्खी या मादा मक्खी कहने के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। वैसे भी हम दसवीं फेल हैं और ऊपर से इतने दिनों से खाली बैठने का कुछ तो फायदा उठाना चाहिए। हमने नर मक्खी के लिए मक्खा शब्द का आविष्कार कर दिया। आज न्यूटन होते तो हमारे आविष्कार को देखकर अवश्य खुश होते।  हाँ तो मैं बात कर रहा था बुढ़ऊ मक्खा के बारे में। 

बुढ़ऊ मक्खा ऊपर से बूढ़े नजर आते हैं, लेकिन अंदर से अभी भी जवान हैं। पहले कुछ दिन एक दो वाट्सप समूहों के लड्डुओं पर भिनभिनाए लेकिन वहाँ बात नहीं बनी। वहाँ से उन्हें उड़ा दिया गया। अब उन्हें लगा कि ऐरे-गैरे लड्डुओं पर बैठने का कोई फायदा नहीं। इसलिए खुद का एक लड्डू ढूँढ़ निकाला। बुढ़ऊ मक्खा ने अपने संग तीन-चार रंगीन मक्खियों को जोड़ लिया। इन तीन-चार रंगीन मक्खियों में एक इंटरनेशनल भी थी। 

भिनभिनाना गली, मोहल्ला, गाँव, शहर, राष्ट्र से ऊँचा उठ चुका था। अब भिनभिनाने का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो चुका था। अब इनका हर दिन एक ही काम था – भिनभिनाना। बुढ़ऊ मक्खा भिनभिनाता तो रंगीन मक्खियाँ उनकी तारीफ में भिनभिनाना शुरु कर देतीं। रंगीन मक्खियाँ भिनभिनाती तो बुढ़ऊ मक्खा लार टपकाते भिनभिनाना शुरु कर देते। अब रोज का यही तमाशा था।

बुढ़ऊ मक्खा अलग-अलग वाट्सप लड्डुओं की रंगीन मक्खियों को अपने  लड्डू पर भिनभिनाने का न्यौता देते। भिनभिनाने को लड्डू मिले तो रंगीन मक्खी भला कैसे मना करतीं। बुढ़ऊ मक्खा में लड्डू ढूँढ़ निकालने का टैलेंट तो था लेकिन रंगीन मक्खियाँ इन सबमें फिसड्डी थीं। बुढ़ऊ मक्खा ने रंगीन मक्खियों से कह रखा था, भिनभिनाने के बाजार में उन्हीं की पहचान बनती है जो काम कम चुगली ज्यादा करते हैं। रंगीन मक्खियाँ अब यह गुर सीख चुकी थीं। 

इसी बीच बुढ़ऊ मक्खा ने अपने पुराने लड्डू साथियों में से कुछ को तोड़कर अपने समूह में जोड़ लिया। पहले कुछ दिनों तक बुढ़ऊ मक्खा उन पर वाहवाही के शब्दों से खूब भिनभिनाए। किंतु पुराने साथियों के साथ समलैंगिक होना उसे पसंद नहीं था। उन्हें डर था कहीं रंगीन मक्खियाँ उनसे दूरी न बना ले। सो धीरे-धीरे नए मक्खों से दूरी बना ली। 

अब नए मक्खे बुढ़ऊ मक्खा के उम्र का लिहाज करते और मजबूरन बेस्वाद चीज़ों पर भिनभिनाने लगते। ऐसा नहीं करने पर बुढ़ऊ मक्खा नाराज हो जाते। कभी-कभार तो नए मक्खों को निजी तौर पर कह देते कि आज आप अवश्य भिनभिनाएँ। इस तरह बुढ़ऊ मक्खा और रंगीन मक्खियों के चक्कर में नए मक्खे न इधर के हुए न उधर के। धोबी के कुत्ते का मुहावरा अब नए मक्खों पर इस्तेमाल होने लगा था।                 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657