नीम का पेड़

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

आज करण साहब जैसे ही सो के उठे, उनके बेटे रोहन ने कहा, "पापा चाय पीकर मेरे कमरे में आइयेगा, कुछ विचार विमर्श करना है।"

"हां, बोलो बेटा मैं चाय यहीं ले आया, चलो अच्छा लगा कि तुम्हे मुझसे कुछ बातें करनी है, वरना खामोशी में ही दिन गुजर रहे हैं।"

"पापा, मकान के कागज़ दिखाइए, कुछ काम है।"

और करण साहब अलमारी का ताला खोलकर मकान के कागजात की फ़ाइल ही रोहन को पकड़ा दिए।

फिर अपने कमरे में आकर समाचारपत्र पढ़ने लगे। नजरें शब्दो पर थी, लेकिन अतीत के बहुमूल्य क्षण दिमाग का ताला खोलने में लगे थे।

कितने परिश्रम से उसने और किरण ने ये मकान बनवाया था, इकलौते बेटे रोहन का एक महीने बाद विवाह था, रात दिन मजदूरों के साथ जगे रहे, दोनो की तनख्वाह से साल भर से कुछ रकम बैंक में जमा करते रहे, पीएफ लोन निकाला, कई बार घर मे सब्जी गोल कर दाल से ही काम चलाया, तब जाकर ये मकान बन पाया।

अब तो पोते, पोती भी कॉलेज पहुँच गए, किरण को ईश्वर ने आसमान की किरण में परिवर्तित कर दिया। आज रोहन को कैसे घर के कागज़ की याद आ गयी।

यूँ ही टहलते हुए बाहर निकल पड़ा, थोड़ी दूर पर ही एक नीम का बड़ा पेड़ था, जिसके नीचे कई बार किरण और करण बैठे हवा का आनंद लेते थे, वो कटा पड़ा था। अचंभित हो, वहीं पास में करण सिंह बैठ गए, पेड़ के नीचे के हिस्से को छू कर उनका मन द्रवित हो गया और आंसुओ की धार निकल पड़ी।

तभी रोहन सामने से आते दिखा, पापा आप यहां बैठे हैं, मेरी बात पूरी हुई नही और आप चले आये। अभी मैंने पेपर वकील को लैपटॉप पर दिखाया। नए नियम कानून आये हैं,  कमरे या कुछ भी मकान में बनवाना है, तो नक्शा दिखाना पड़ता है। बच्चे बड़े हो गए हैं, ऊपर उनके लिए, पूरा एक सेट बनवाना है।

और करण सिंह सोच में पड़ गए, आजकल की सोशल मीडिया की कहानियां और समाचार पत्रों ने विचारों का रुख ही बदल दिया है, मैं सकारात्मक क्यों नही सोच सका।


स्वरचित

भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलोर