ज़िंदगी से बशर को मौत तलक छोड़ कर वक़्त बढ़ चला अपना

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क


अब जहाँ में नहीं पता अपना

जब ख़ुदा से है राब्ता अपना


मत बता गल्तियां किसी को तू

हर कोई है यहाँ ख़ुदा अपना


इस जहाँ में कोई हुआ अपना

ढूँडता क्यूँ है बावरा अपना


साथ रहता था कुछ सदीं पहले

अब बशर का है दायरा अपना


ज़िंदगी से बशर को मौत तलक

छोड़ कर वक़्त बढ़ चला अपना


कब रुका दिल की धड़कनों की तरह

वक़्त है उम्र सा ढला अपना


फिक्र कैसी है अब ज़माने की

जाने जब रब बुरा-भला अपना


डर लगे मुझको क्यूँ उजड़ने से

जब न कोई है मरहला अपना 


बेवफ़ा को वो भूल सकता है

दिल ज़रा तुम टटोलना अपना


कोई देता नहीं है साथ अगर

खुद से मैं करता हूँ मज़ा अपना


रहता कोई नहीं वहाँ पर अब

जो मकां था हरा-भरा अपना


ले गए लूटकर मेरे अपने

जो था घर में बचा-खुचा अपना


दोष तुम क्यूँ किसी को देते हो

जबकि दुश्मन ही दिल बना अपना


प्रज्ञा देवले✍️