चाय और चोरी

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

वैसे तो साहित्यकारों के घरों में चोरी नहीं होती। यदि हो भी जाए तो चोरों को कुछ खास मिलता नहीं। इसीलिए साहित्यकारों के घर अत्यंत सुरक्षित होते हैं। लेकिन चोर तो चोर हैं। वे चोरी केवल जरूरतों को पूरा करने के लिए नहीं करते, बल्कि अपनी चोरी की कला कहीं भूल न जाएँ इसलिए हाथ साफ करते रहते हैं। छुरी की धार और चोरी की कला कभी मुंड नहीं पड़नी चाहिए। ऐसे ही एक दिन कवि ऊबाऊ भैया के यहाँ रात को चोरी हो गई। उधर ऊबाऊ भैया बिन बुलाए कवि सम्मेलन में मुँह मार रहे थे। घर लौटने पर जैसे ही उनको पता चला कि उनके घर पर चोरी हुई है तब से वे ऊँचे तान में अपना ही रोना रोज रो रहे हैं।

अगले दिन आस-पड़ोस की भीड़ जुटी। आस-पड़ोस के लोग कितने भी दुखी क्यों न हो, किंतु दूसरों के नुकसान की तुलना अपने सामानों से कर प्रसन्न हो जाते हैं। ऊबाऊ भैया के यहाँ जुटने वाली भीड़ शरीर से चोरी के दुख में शामिल तो हो रही है, लेकिन मानसिक रूप से उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। भीड़ को चाय पीने के चक्कर में ऊबाऊ भैया न जितना कमाया नहीं उससे कहीं ज्यदा चाय पत्ती, दूध, चीनी पर खर्च कर दिया। हालत ऐसी कि काटो तो खून नहीं। अगले गिन ऊबाऊ भैया ने घर के बाहर एक बोर्ड लटकवा दिया। बोर्ड पर लिखा था – चोरी के बारे में बिल्कुल न पूछें। जहाँ तक चाय का सवाल वह बगल वाले रामलाल के यहाँ मिल जाएगी। चूंकि उनके घर में अभी-अभी चोरी हुई है, सो उनकी चाय का का कोई जवाब नहीं है।          

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657