फलक से उतारी गई
चांद की हो चंदनिया
या इत्र की ख़ुशबू में
बिखरी हुई कलियां ।।
जन्नत में भी नाचती होगी
अप्सराएं और परियां
इठला इठलाकर पूछती
होगी तुम्हारी सहेलियां ।।
कौन सी नूर की हूर हो
कौन सी हुस्न की परियां
कभी तुम्हें देखूं कभी
आंगन कभी यह गलियां ।।
पावस की जलधार सी नैनों से
बूंद बूंद अमृत बरसे पिया
यामिनी में चमक उठे नैनन
देखकर यह कजरारे नैनन
हमने युगों युगों तक है जिया ।
काले मेघों से उमड़ते घुमड़ते
भय खाते खुला आकाश भी
कल्पना लोक की कल्प वृक्ष भी
अपना आपा अपना धैर्य खो दिया ।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह 'मानस'
manoj22shah@gmail.com