दयालुता दिखाता है मेघ,धरा हरी भरी बन जाती है,
दिनकर के ताप से ही तो,तरु लतायें कुसुमित हो पाती हैं।
कल कल करती सरिता सबको,मीठा जल पिलाती है,
मौन समेटे सिंधु, अपरिमित सीप मोतियों का दातृ है।
सीखें हम भी प्रकृति से दया धर्म निभाना,
त्याग अहं की भावना दयालुता लुटाना।
सभ्यता यही सिखाती हमारी,कहते हमारे संस्कार यही,
समझे जो पर संताप को,सही मायने में इंसान वही।
आज फिर संकट की घड़ियां आन पड़ी हैं,
विश्व जूझ रहा महामारी से,विकट समस्या की ये घड़ी है।
सक्षम वर्ग के लोग यदि, दया धर्म अपना लें,
स्वार्थ तजकर,मजबूर पर दयालुता लुटा दें।
टल जायेगा तब ये मुश्किल का दौर भी,
सुकून मिलेगा उन्हें जिनकी रोजी छिन गयीं,
दुआओं से बढ़कर है क्या कुछ और भी?
हो अगर इंसान तो, ज़िंदा रहने का प्रमाण यही,
दयालुता हो उर में जिसके,पाता ऊंचा सम्मान वही।
रीमा सिन्हा (लखनऊ)