एक प्रार्थना धरती माँ की

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क   

मेरी प्रिय संतानो!

तुम लोगों ने मुझे इतना सहनशील बना दिया है कि अब सुख-दुख, रात-दिन, पाप-पुण्य सब एक सा लगता है। जब-जब धरती माँ कहकर पुकारते हो तब-तब मेरे भीतर धड़कने वाला हृदय तड़प उठता है। झूठा सम्मान असली छलावे से कहीं ज्यादा आत्मघाती होता है। तुम लोगों जितना स्वार्थी मैंने आज तक नहीं देखा। गर्मी के दिनों में पेड़ों की छाया के लिए दर-ब-दर भटक रही हूँ। ऑक्सीजन के लिए भीख माँग रही हूँ। मेरे भाई मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, अरुण, वरुण सभी मेरा हालचाल ले रहे हैं। पिता सूर्य हालचाल लेने के लिए अपनी किरणें भेज देते हैं। अगर वे न होते तो मैं कब की मर जाती। मुझे दुख इस बात का है कि जिन्हें मैंने अपना समझा, उन्होंने मुझे पराया कर दिया। अक्सर दुनिया में वे ही लोग धोखा देते हैं जो अपने होते हैं। तुम लोगों के मगरच्छ आंसुओं से मैं परेशान हूँ। मैं यहाँ दुख से तड़प रही हूँ। मेरी अंतहीन चित्कार से तुम्हारा हृदय तनिक भी नहीं पसीजता?

कहने को तो धरती दिवस मनाते हो लेकिन व्यवहार एकदम हाथी के दाँत की तरह करते हो। खाने के और दिखाने के और। तुम लोगों को बड़ा गुमान हो चला था कि तुम से बढ़कर कोई नहीं है। क्यों भूल जाते हो कि हर उठने वाली चीज़ आखिर नीचे ही आती है! बड़ा शौक था प्रकृति के खिलाफ जाकर सूरमा बनने का। और बोओ मेरी कोख में प्लास्टिक के बीज! बिना बीज के फल, बिना खुश्बू के फूल उगाने की बड़ी खुजली मची थी। और करो मौसम-बेमौसम की खेती! तुम्हें मेरे बदन पर बम फोड़ते हुए थोड़ी भी शर्म नहीं आयी? तुम्हारे बच्चों को थोड़ी सी खरोच आ जाए तो दुनिया सिर पर उठा लेते हो। मैं तो सात अरब बच्चों की माँ हैं। सोचो मैंने तुम्हें कितने लाड़-दुलार से पाला होगा। तुम्हें तनिक भी ख्याल नहीं आया कि इन बम धमाकों से मुझ पर क्या गुजरती होगी? बदन पर जहाँ तहाँ फफोले निकल आए हैं। कुछ संतान तो ऐसी हैं जो खनिज के नाम पर मेरा पेट चीड़ फाड़कर इतना कुछ निकाल लिया कि अब मेरे भीतर कुछ बचा ही नहीं है। अब नहीं है तो नही है। तुम्हीं बताओ कहाँ से लाकर दूँ? गोदी में बच्चे की लात जितना सुख देती है, बड़ा होकर वही लात उतना दुख भी देती है। मेरे बदन पर लिपटी हरियाली वाली साड़ी उतारकर फटी-पुरानी, फीकी साड़ी पहना दी। क्या मुझे हरियाली साड़ी पहनने का कोई अधिकार नहीं?  क्या मैं तुम्हारी नजरों में इतनी गिर चुकी हूँ? कुछ लोग मेरे बदन का बैठे-बिठाए धंधा कर रहे हैं। अंग पर बुल्डोजर चढ़ाकर मुझे प्लॉट, अपार्टमेट, विल्ला, बंग्ला, फार्म हाउस के नाम पर टुकड़े करते जा रहे हैं। इतने टुकड़े तो एक निर्मम कसाई तक नहीं करता।

मुझे माँ कहने का दिखावा अब बंद करो। सहने की भी एक सीमा होती है। मेरी भी एक सीमा है। हे मेरे लालची वत्सो! क्या तुम्हें नहीं लगता कि माँ की पीड़ा का महामारी से सीधा संबंध है? जो महामारी के लिए ठीक से दवा तक नहीं बना सकते वे भला मिट्टी का कण कैसे बना सकते हैं! वस्तु की कीमत उसके रहने तक पता नहीं चलती। जाने के बाद उसकी कमी बहुत खलती है। मैं तुम्हारी जरूरतें पूरी कर सकती हूँ, लेकिन अनंत इच्छाएँ नहीं। आशा करती हूँ कि मेरी प्रार्थना पर तुम अवश्य विचार करोगे।

मौत की कगार पर खड़ी तुम्हारी धरती माँ

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657