बहुत समय पहले की बात है। फलाँ नगर में कुछ लोग रहते थे। उनके पास जीवन जीने के लिए रोटी, कपड़ा, मकान और जरूरी सुविधाएँ थीं। बस जीवन जिए जा रहे थे। लोगों को रात को नींद नहीं आती थी,कभी आंख लग भी जाती तो भयंकर सपने आते। लोगों को बड़ी बेचैनी रहती। उन्हें बैठे बिठाए मोक्ष चाहिए था। उन्होंने बहुतेरा इलाज कराया, लेकिन रोग घटने के बजाय बढ़ता ही गया। उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। आखिर करें तो करें क्या?
एक दिन एक बहुरूपिया उस नगर में आया। वह बहुत पहुंचा हुआ था। गिरगिट के रंग की तरह अपने कपड़े बदलता था। उड़नखटोला में सवारी करता था। सभी को मित्रो! कहकर उन्हीं के हाथों आँखों में मिर्ची झोंकवाने में सिद्धहस्त था।
लोगों को पता लगा तो वह भी उसके पास गए और अपनी विपदा उसे कह सुनाई। बोले-
"महाराज! जैसे भी हो हमारा कष्ट दूर कर दीजिए।“
बहुरूपिए ने कहा- "मित्रो! आपके रोग का एक ही कारण है और वह यह कि आप जीवित हैं।“
लोगों ने विस्मय से उनकी ओर देखा। पूछा- "आप हमें जीवित कैसे कह सकते हैं? हम सुख-सुविधाओं की कमी में मरे जा रहे हैं।“
बहुरूपिए ने हँसकर कहा- जीवित वह नहीं होता जो इस मोह-माया के पीछे भागे। वास्तव में जीवित तो वह है जो अपने नगर के सारे संसाधन बेच-बाचकर कमंडल थामे संन्यास ले ले। ऐसा करने से न तो भूख लगती है, न प्यास लगती है, न रहने की इच्छा होती है, न सुख पाने की कोई आशा। ऐसा करने से अपने आप मोक्ष प्राप्त हो जाएगा। क्या तुम लोग इस तरह रह सकते हो?
लोग क्या जवाब देते! वे तो सीमित महंगाई, भुखमरी, भ्रष्टाचार, अराजकता के आदी थे। उन्हें इनका विकराल रूप देखने का अवसर ही नहीं मिला।
बहुरूपिए ने कहा- "अगर तुम जीवित रहने से बचना चाहते हो तो मेरे बताए महंगाई, भुखमरी, भ्रष्टाचार, अराजकता के रास्ते पर चलो बहुत जल्द तुम्हें इस दुनिया की किचकिच से मोक्ष प्राप्त हो जाएगा।।"
लोगों ने यही किया और मित्रो! कहने वाले को राजपाठ सौंप दिया। अब लोगों को मोक्ष की प्राप्ति करने में कोई दुविधा नहीं हो रही है।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657