पड़े जिसमें पैर तेरे वो फ़िज़ा बड़ी सुहानी
यहीं मेरी अब है साँसें यहीं मेरी अब मकानी
न उजाड़ो तुम ज़मीं को ये हमारी पासबाँ है
जो मिली है ज़िंदगानी इसी पे है अब बितानी
ये नसीबों की है बातें की मिला महल किसी को
न महल को तुम यूँ कोसों है ये दौलतानी जानी
कोई ग़म में रो रहा है कोई हँस के रो रहा है
यहाँ कौन शादमाँ है यही सबकी है कहानी
ये जहाँ की ज़िंदगी है या हमारी जान है ये
बड़ी कश्मकश में उलझी मिली क्यूँ ये ज़िंदगानी
है अटल ये साथ अपना नहीं छूटे अब कभी भी
मैं तुम्हारा इक नगर हूँ मेरी तुम हो राजधानी
प्रज्ञा देवले✍️
महेश्वर ,जिला-खरगोन, मध्यप्रदेश