ठंडे आँसू

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

आज फिर रमेश की कर्कश वाणी जहर उगल रही थी, आफिस में बॉस से बहस का साफ साफ रंग घर मे नजर आ रहा था। आते ही जोर से बैग पटक कर बोले, "क्या कर रही थी, इतनी देर में दरवाजा खुला, दिनभर सोती रहती हो।" 

रीना के मन मे आया, "कह दूं,  हां, घर का खाना और गृहस्थी के सब काम बटन दबाने से ही होते हैं, पर चुप रह गयी, कुछ भी जवाब दिया तो बॉस का गुस्सा मेरे ऊपर किसी भी वस्तु को फेक कर ही निकलेगा।"

धीरे धीरे खामोशी से सब काम पूरा किया, उधर बड़बड़ाना अपनी चरम सीमा पार कर रहा था।

आज खाने के टेबल से आवाज़ आ रही थी, "कहाँ घुस गई, सब्ज़ी में इतना कम नमक डाला, रोटी भी मुलायम नही है।"

रीना फ़ोन पर थी, मायके से फ़ोन था।

"कौन इतनी रात में बात करता है, फ़ोन काट दिया करो।"

अब पचास की उम्र में रीना की सहन शक्ति समाप्त हो रही थी, सोच में पड़ गयी, कई साल खामोशी से सब सहन किया रात भर तकिया भीगता रहा, ठंडे आंसू अपनी कहानी लिखते रहे। रातोरात उसने अपना भाग्य बदलने की ठानी।

शाम को रमेश जब घर आये, हॉल में एक पुलिस की ड्रेस में रवीना को बैठा पाया। देखकर सकपका गए तो रीना ने परिचय कराया, "ये मेरी कॉलेज की सहेली रवीना है, पुलिस डिपार्टमेंट में है, इसी महीने ट्रांसफर होकर आयी हैं।"

"और जीजाजी क्या हाल है, अब इसी शहर में हूँ, आना जाना लगा रहेगा।"

अब रमेश साहब दोनो सहेलियों से हंस हंस कर बाते कर रहे थे। चाय पीकर रवीना चली गयी।

घर का माहौल बदल चुका था।

रात को दोनो सहेलियाँ अपने प्लान को सफल देख खिलखिला रही थी।

स्वरचित

भगवती सक्सेना गौड़

बैंगलुरु