शायर इकबाल ने क्या खूब कहा है-जम्हूरियत वह तजर्-ए-हुकूमत है जहां बंदों को तौला नहीं गिना जाता है, और महाराष्ट्र की राजनीति इसी गिनती में लग गई है। एक-एक विधायक की गिनती जारी है और ज्यों ही यह पूरी हो जाएगी, गिनने वाला प्रकट हो जाएगा और सरकार बनाने का दावा पेश कर देगा। जनता ने इससे पहले मध्यप्रदेश और फिर राजस्थान में ऐसा होते देखा है। मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार के सरपरस्त तब कमलनाथ थे जिन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पटकनी दी थी क्योंकि उन्हें उनके सपने भारतीय जनता पार्टी में साकार होते दिखाई दिए थे। कमलनाथ की कांग्रेस सरकार तब गिर गई थी।
उसके बाद राजस्थान के युवा नेता सचिन पायलट रूठ कर चले गए थे, तब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक-एक विधायक की बाड़ाबंदी करते रहे और बहुमत साबित किया। भाजपा सामने नहीं आई थी केवल विधायक गिन रही थी और केंद्र की सरकारी एजेंसियों के जरिए दबाव बना रही थी। यहां तक कि मुख्यमंत्री के भाई के यहां भी छापे पड़े। ताजा मामला महाराष्ट्र का है। केंद्रीय सरकारी एजेंसियों का दबाव दर्जन भर विधायकों पर है और गिनती बदस्तूर जारी है। इस बार कमान एकनाथ शिंदे ने संभाली है।
पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के अच्छे मित्र और तमाम बड़े मंत्रालयों के मुखिया होने के बावजूद ईडी व सीबीआई से बचे हुए शिंदे की घोषणा काफी नई और दिलचस्प है। उन्होंने साफ कहा है कि भाजपा के हिंदुत्व के साथ ही सरकार बनाएंगे, कांग्रेस-एनसीपी उन्हें बिलकुल मंजूर नहीं। ऐसी बातें एजेंडे में तो हमेशा रही है लेकिन हिडन। इस बार यह लिहाज भी छूट गया है। साफ बात कि हिंदुत्ववादी ताकतें ही चाहिए। पहले सभी विधायक सूरत में इकठ्ठा हुए और अब गुवाहाटी में शतरंज की बिसात बिछ गई है।
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे सरकारी आवास श्वर्षाश् को छोड़ निजी निवास श्मातोश्रीश् चले गए हैं, वही निवास जहां से बाला साहेब ठाकरे की सियासत चलती थी। वे खुद कभी सीएम नहीं बने लेकिन शक्ति ऐसी कि उनके रिमोट से सारी मुंबई और प्रदेश चलता था। उद्धव ठाकरे ने कई रवायतें तोड़ी हैं। मुख्यमंत्री का पद भार लेना और कांग्रेस का समर्थन भी। ऐसा दो साल पहले कोई सोच भी नहीं सकता था क्योंकि भाजपा जैसी आज दिख रही है शिवसेना ऐसी बहुत पहले होकर बदल चुकी है। शायद पूरी तरह से नहीं बदल सकी वरना एकनाथ शिंदे को अपनी मजबूती अब भी भाजपा के साथ होने में ही कैसे दिखाई देती है या फिर भाजपा को अपनी सरकार और शक्ति का निर्माण एकनाथ शिंदे के जरिए ही फलीभूत होता दिखाई देता है।
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की मातोश्री की ओर यह यात्रा कुछ पस्त और हारी हुई जरूर लगती है लेकिन इससे एक मजबूत संदेश यह भी जाता है कि यह जो शिवसेना होगी मेरे बिना होगी और अगर पुत्र होने के नाते बालासाहेब ठाकरे की विरासत के वारिस वे हैं तो यह शिवसेना बालासाहेब के बगैर होगी। ऐसा नहीं है कि शिवसेना में पहली बार टूट-फूट हो रही हो। बागी इतिहास यहां भी रहा है। पहला झटका 1991 में छगन भुजबल ने दिया था। उन्होंने शरद पवार से हाथ मिलाया था जो उस वक्त कांग्रेस के साथ थे।
वे ओबीसी नेता थे और चाहते थे कि सेना में इस तबके की आवाज मुखर हो। बालासाहेब इस तरह की राजनीति को कम पसंद करते थे। भुजबल की नाराजगी बालासाहेब से बढ़ती गई। सेना से अलग हुए भुजबल अगला विधानसभा चुनाव हार गए। 2005 में पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे ने सेना छोड़ने का इरादा किया। उनकी तमन्ना भी पद की नहीं थी वे खुद को सेना से अलग-थलग महसूस कर रहे थे। कुछ ही महीनों में सेना को एक और झटका युवा और तेज तर्रार नेता राज ठाकरे से मिला। वे उद्धव की शिवसेना में खुद को हाशिये पर जाता देख रहे थे। राज ने नई पार्टी बनाई महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे)। मनसे भाजपा जैसी ही सख्त राजनीति करती है।
सवाल यह भी है कि क्या आज जिस हाल में महाराष्ट्र की सियासत है उसके बीज उसी दिन पड़ गए थे जब उद्धव ठाकरे ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिलाया था? कहा तो यह भी जा सकता है कि उसी दिन से भाजपा ने यह तय कर लिया था कि वह इस गठबंधन को चलने नहीं देगी। सियासी संकेत शिवसेना के पाले में भेजे जाते रहे लेकिन पार्टी ने उसका नोटिस नहीं लिया, उल्टे संजय राउत और सेना के मुखपत्र श्सामनाश् के संपादकीय एक सद्भावना की राजनीति के साथ चलते भी दिखाई दिए। महाराष्ट्र जैसे शक्तिशाली राज्य से ऐसे संकेत भाजपा के लिये सताने वाले थे। खासकर जब गुजरात राज्य के और राष्ट्रपति के चुनाव बेहद करीब हों। एकनाथ शिंदे में भाजपा को अपनी मुराद पूरी होती दिखी।
केंद्रीय एजेंसियां एक-एक कर उन नेताओं पर शिकंजा कसती जाती जिन पर भाजपा नेता आरोप लगाते। शिंदे के पास शहरी विकास मंत्रालय रहा। मलाईदार महाराष्ट्र स्टेट रोड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन भी शिंदे के पास था जिसमें करोड़ों के ठेके दिए जाते हैं लेकिन चतुर सुजान भाजपा को कभी एकनाथ शिंदे के मंत्रालय में गड़बड़ी नजर नहीं आई। फिर हिंदुत्व के झंडे तले विधायकों की फेहरिस्त जोड़ी जाने लगी। ये टूट के संकेत थे। दो फाड़ हो जाने के भी। यह टूट पिछले बिखराव से बड़ी है। जिस भाजपा ने शिवसेना के सहारे महाराष्ट्र में जड़ें जमाई थीं अब सेना की जड़ें हिला रही है। एकनाथ शिंदे के बेटे श्रीकांत शिंदे कल्याण से सांसद हैं।
संभव है कि केंद्र में कोई बड़ा पद उनके लिए सुरक्षित हो। सियासत दूर की कौड़ी साधने का नाम है। शिवसेना इतनी दूर तक नहीं देख पाई। भाजपा ने साम, दाम, दंड, भेद के साथ सियासी चालें चली हैं और रिसोर्ट राजनीति को इतना स्वीकार्य बना दिया है कि अब किसी को कोई एतराज नहीं होता। राजस्थान के मुख्यमंत्री तो साफ कहते हैं कि राजस्थान के विधायकों ने यह षड्यंत्र कामयाब नहीं होने दिया जबकि हर विधायक को दस करोड़ का प्रलोभन दिया गया था। हमारे विधायक नहीं टूटे।
उनका यह बयान महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद आया है। गहलोत ने कहा कि हमने मध्यप्रदेश से सबक लिया। वहां भी उन्होंने यही किया था। बहरहाल सचिन पायलट अब पार्टी के और सशक्त युवा नेता हैं। राहुल गांधी की ईडी पूछताछ में वे पार्टी की दमदार आवाज बने हैं। शायद इसलिए राहुल गांधी ने कहा भी कि राजनीति में सब्र रखना होता है जैसे मैं और सचिन रखे हुए हैं। महाराष्ट्र में राजस्थान जैसा होने के आसार नहीं हैं क्योंकि बंदों की गिनती बढ़ने लगी है। वैसे देखना यह है कि महाराष्ट्र आगे चलकर मध्यप्रदेश बनता है या फिर राजस्थान?