नया जमाना नई सोच

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि कबीर आज के जमाने में होते तो क्या होता? हिंदू का जन्मा और मुसलमान का पाला-पोसा। बाप रे बाप! इतना बड़ा रिस्क लेकर जीना यानी बुलडोजर चलवाने जैसी बात हो जाती। अमा यार वैसे खतरे उनके जमाने में भी कम नहीं थे। इसीलिए जहाँ खुदा को बहरा कहा, वहीं भगवान को पत्थर कह रिस्क लेने वाले कबीर किसी जेम्स बांड से कम थोड़ी न थे। जो भी हो उनके बाल अनुभव से पके थे।

 बालों की सुफेदी इसी चिंता में और गहराती गई कि वे जागते क्यों हैं और रोते क्यों हैं? हो न हो या तो उनके जमाने में कानिया गुरु नहीं थे जो पैंतीस-चालीस का पेट्रोल वाला लॉफिंग थेरेपी कर उन्हें ठीक कर देते या फिर कोरोनाकाल जैसी धनउगाऊ फार्मा कंपनियाँ। वह तो शुक्र मनाओ कि आज के जैसे अस्पताल उस जमाने में नहीं थे। वरना कबीर के जागने और रोने की समस्या के इतने डायग्नोस्टिक टेस्ट होते कि उसका बिल चुकाते-चुकाते उनकी सातों पुश्ते सड़क पर आ जाती। जो भी हो बहुत किस्मत वाले थे कबीर।

मैंने कबीर के दर्शन को अपने हिसाब से समझने का प्रयास किया है। वे परोक्ष रूप से यही कहना चाहते थे कि जब तुम जागकर रो नहीं सकते हो तो आँख, कान, मुँह बंद कर लो। यही सुखी होने का सबसे अच्छा उपाय है। यहाँ आँख में मिर्ची डालने, कान में पारा बहाने और मुँह में लत्ता ठूँसने का दौर जारी है। जो यह सब सह सकता है वही प्रजातंत्र का सबसे सुखी जीव है। हाल ही में प्रजातंत्र की मेगा नीलामी हुई। कई भाग्यशाली नेताओं पर छप्पर फाड़कर वोटों की वर्षा हुई। वो शान से विधायक-सांसद बन गए। लेकिन सभी इतनी किस्मत वाले नहीं थे। कुछ मुश्किल से अपनी जमानत बचा पाए। कईयों की जमानत जब्त हो गई। प्रजातंत्र की माया निराली है। किसी समय इसे सर्वोपरि व्यवस्था कहा जाता था। लेकिन अब कुल मिलाकर राजतंत्र ही ठीक लग रहा है। इसमें यदा-कदा तानाशाह पैदा होते हैं, प्रजातंत्र में केवल वे तानाशाह होते हैं। प्रजातंत्र के मैदान आवाज़ें कैद हो गयी हैं। माइक और गला अब नेताओं के हिस्से में आ गए हैं। सुनाने वाले सुना रहे हैं, सुनने वाले सुन रहे हैं। यातना करने वाले यातना कर रहे हैं, सहने वाले सह रहे हैं। जो सुनने और सहने योग्य नहीं हैं उनके यहाँ साक्षात बुलडोजर बाबा के दर्शन हो जाते हैं।

यहाँ हर कोई मरता है। आदमी मरता है। समाज मरता है। समाज के नाम पर धंधा करने वाला वही एक जीता है। भैये इसी को प्रजातंत्र कहते हैं। तमाशा चारों ओर है। रोमांच सराबोर है। आदमी कोई भी मरे मजा जरूर आता है। प्रजातंत्र की मंडी में कुछ बेशर्म कुकुरमुत्ते बार-बार सर कुचल देने पर भी उठने की कोशिश करते हैं। उन्हें ठिकाने लगाने के लिए बिचौलिए तैयार रहते हैं।

मरने का सिलसिला जारी है। गिरे हुए मरने के लिये हमेशा तैयार रहते हैं। अफसर शान से मरते हैं। थाने चुल्लू भर रिश्वत में डुबकर मरने को अपनी शान समझते हैं। दारू के ठेकेदार हलाहल बहाने के लिए मरते हैं। बैंक फर्जियों को रुपया लुटाने के लिए मरते हैं। जो भी मरे लेकिन झूठ मरने में नहीं मारने में विश्वास रखता है। दुर्भाग्य से झूठ भीष्म पितामह की तरह इच्छामृत्यु प्राप्त है और कलयुग में राजनीतिक शिखंडियों को देखकर और बेकाबू हो जाता है। अच्छा हुआ कबीर अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनकी आत्मा जहाँ भी रहे सुखी रहे, यही परमात्मा से मेरी प्रार्थना है।