एक समय था जब प्यासा कुएँ के पास जाता था। अब जमाना उल्टा है। कुआँ खुद प्यासे के पास चलकर आता है। सवा सेर गेहूँ के शंकर से लेकर माल्या, नीरव मोदी तक सबने उधार लिया। इसके लिए उन्हें उधार देने वाले के पास जाना पड़ा। हाँ यह अलग बात है कि सवा सेर गेहूँ में उधारी चुकाने के बावजूद उधार लेने वाले शंकर के बेटे को जीवन भर पीसा गया। वहीं नीरव मोदी, ललित मोदी, विजय माल्या सारे बैंकों की पूंजी पर पोंछा लगाकर उड़न छू हो गए। यही कारण है कि उनका कर्जा हम टैक्स के रूप में चुका रहे हैं। मानो उनका किसी जन्म का पुण्य हम पर रह गया था, जिसे चुकाने के लिए इस सरजमीं पर हमें पीसा जा रहा है। इंसान जरूरतों का पुलिंदा है। उसे जीवन भर किसी न किसी चीज़ की जरूरत पड़ती ही रहती है। उसकी इन्हीं जरूरतों को पूरा करने के लिए पहले साहूकार हुआ करते थे, अब बैंक हो गए। दोनों में ज्यादा फर्क नहीं है। यदि दोनों के आगे आपकी औकात, बाहुबल ज्यादा है तो दोनों चुप्पी साधे मौन धारण कर लेते हैं। जमाना पहले भी लाठी का था अब भी लाठी का है और आगे भी लाठी का रहेगा। यकीन न होतो देश के भगोड़ों से पूछ लीजिए। हमारे सभी प्रश्नों के उत्तर प्रसंग सहित व्याख्यायुक्त मिलते हैं।
अब उधार लेने के लिए किसी के पास जाने की जरूरत नहीं है। यदि आपके पास फोन है तो समझो सब कुछ है। यह फोन, फोन न हुआ चलता फिरता अलाउद्दीनी चिराग हो गया। अलाउद्दीनी चिराग में जहाँ घसना पड़ता हैं वहीं आधुनिक चिराग में कुछ एप्स डाउनलोड करने पड़ते हैं। इन्हें ही कहते हैं मोइक्रो फायनेसिंग एप्स। प्ले स्टोर में जिंदगी को खिलवाड़ बनाने वाले एप्सों की कोई कमी नहीं है। माइक्रो फायनिंसिंग एप्स एकदम नशे की तरह होते हैं। पहले पहल वे आपको बिना माँगे कुछ रुपए देंगे। बिना मेहनत किए पैसा मिले तो कोई बेवकूफ ही मना करेगा। पाँच से दस हजार के छोटे-छोटे उधार तो चुटकियों में मिल जाते हैं। जरूरत है तो उधार कार्ड की। क्षमा चाहता हूँ उधार कार्ड नहीं, आधार कार्ड की। आधार है तो उधार है। निराधार है तो नो उधार है। कभी-कभी तो लगता है कि भगवद्गीता का कथन – शरीर नाशवान है, आत्मा तो अजर-अमर है को बदलकर शरीर नाशवान है, आधार अजर-अमर है, कर देना चाहिए। अब देखिए न देश में मरे हुए के आधार पर करोड़ों की उधारी का गेम खेलने वालों की कोई कमी नहीं है।
माइक्रो फायनेंस में ऋण की मंजूरी चाय बनाने से भी आसान है। चुटकी बजाते ही उधार का रोकड़ा आपके हाथ में। इसके लिए ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं होती है। मिट्टी के कणों से भी बारीक अक्षरों में मुद्रित शर्तों को स्वीकार करना है, दो चार जरूरी दस्तावेज अपलोड करना है और मस्त होकर सारी चिंताएँ धुआँ करना है। कमाल की बात यह है कि माइक्रो फायनेंस का कर्जा कोई डुबो नहीं सकता। कारण, ये लोग मुर्दों से भी पैसे वसूलने में प्रशिक्षित होते हैं। अब आप पूछेंगे कि ये काम कैसे करते हैं? सबसे पहले तो वे आपकी निजी जानकारी क्रेडिट कार्ड वालों को बेच देते हैं। इसके एवज में उन्हें अच्छी खासी रकम मिलती है। उधार लेने वाला आधार के बहाने अपना गला माइक्रो फायनांसर के बाउंसरों के हाथों में सौंप देता है। दस, बीस रुपए सैकड़ा वाले ब्याज के चलते उधार की रकम गरीब की बेटी से भी जल्दी जवान हो जाती है। यहीं से शुरु होता है बाउंसरों का खेल। सीधे-सीधे कर्जा चुका दिया, तो समझो गंगा नहा लिया। अगर ऐसा नहीं किया तो वे पहले आपको, फिर आपके घर वालों को गरियाना शुरु करते हैं। इतना होने पर भी कर्जा वसूल न होने पर उधार लेने वाले के गले में भद्दी-भद्दी गालियों की माला पहनाकर सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर सम्मानित करते हैं। तब तक उधार लेने वाला सवा सेर गेहूँ की भांति मर जाता है, और उधारी का रुपया उनका परिवार चुकाने पर मजबूर हो जाता है। अब बताइए, कौन कहता है कि सवा सेर गेहूँ की कहानी समाप्त हो गयी। उस कहानी में उधार लेने वाले शंकर के वंशज आज भी जिंदा हैं, यकीन न हो तो इधर-उधर नजर दौड़ाकर ही देख लीजिए।
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657