आखिर हैं तो हिंदुस्तानी

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क   

धर्म हिंदू हो या मुसलमान क्या फर्क पड़ता है? मंदिर की चौखट पर बैठने वाले भिखारी हिंदू ही सही वहाँ आने वाले भक्त गले थोड़े न लगायेंगे।  उसी तरह मस्जिद के आगे बैठने वाले फकीर मुस्लिम हुए तो क्या हुआ, इबादत के लिए आने वाले नमाज पढ़ेंगे न कि गले लगाते फिरेंगे। क्या फर्क पड़ता है हिंदू या मुसलमान होने से? हिंदू चाहे कितने भी व्रत क्यों न कर लें और मुसलमान चाहे जितने भी रोजे रख लें, दोनों टैक्स से बचने के लिए छोटी सी छोटी संभावना के लिए हाथ-पैर मारते ही हैं, क्योंकि पैसे दोनों को प्यारे हैं। हो सकता है एक के मंत्रों की भाषा संस्कृत हो और दूसरे के आयतों की भाषा अरबी लेकिन दोनों के बच्चे पढ़ते तो अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में ही हैं न! क्या फर्क पड़ता है कि भगवद्गीता की भाषा संस्कृत है या फिर क़ुरान की भाषा अरबी? दोनों ही आज के चकाचौंध वाले अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में दम तोड़ती नजर आ रही हैं।

मंदिर जाने वाला भक्त जिस ऊबर-खाबड़ सड़क से होकर गुजरता है उसी सड़क से कोई नमाजी नमाज अदा करने लिए मस्जिद जाता है। दोनों के रास्ते में विकास का टायर कब का पंक्चर हो गया है। दोनों ही कौमों के न जाने कितने लोग गिरकर अपने हाथ-पैर तुड़वा चुके हैं। चाहे हलवा, पूड़ी, खीर बनाना हो या फिर बिरयानी, शीरखुर्मा दोनों के लिए किराणा की दुकान में कीमतों की सूची तो एक ही होती है। महंगाई दोनों के लिए एक जैसी होती है। कोई आँखों के बीच माथे पर जितना बड़ा तिलक या फिर कोई आँखों में जितना सुरमा लगा लें दोनों की आँखें मिलावट को पहचानने से धोखा खा ही जाती हैं।

कोई वास्तुदोष को ध्यान में रखकर घर बनाता है तो कोई बिना वास्तु के, लेकिन क्या फर्क पड़ता है? दोनों के घर के आगे मैनहोल तो खुला रहता है। बदबू दोनों को एक सी मारती है। चाहे इसे देवभूमि कह लो या फिर सारे जहाँ से अच्छा दोनों को खुली हवा में सांस लेने की आजादी कहाँ है? दोनों ही प्रदूषण के शिकार हैं। दोनों ही बिन माँगी बीमारियों के फरियादी हैं। हर दिन पवित्र गोमूत्र पीने से न गरीबी मिटने वाली है और न ही दाढ़ी मूँछ बढ़ाने से दो जून की रोटी मिलने वाली है। जब तक वे दोनों अपना पसीना नहीं बहायेंगे तब तक उन्हें कोई मेहनताना देने के लिए तैयार नहीं है।

चाहे कन्या का विवाह पूर्ण संस्कारों से हों या फिर बेटी की शादी पूरे तौर-तरीकों से। दोनों इसी चिंता में तिल-तिल जला करते हैं कि उनकी लड़की जलने या मरने से बची तो रहेगी न! बारिश के दिन आने पर दोनों ही अपने अपार्टमेंटों को कागज़ की  नाव की तरह नालों में डूबने से बचाने की चिंता में दिल की धड़कनों को बढ़ाते रहते हैं। वे दोनों जानते हैं कि पाश्चात्य संगीत के मोहजाल में गजल और कीर्तन दोनों का भविष्य खतरे में हैं। बावजूद इसके वे एक हैं। कारण, वे दुनिया के किसी भी कोने में चले जाएँ कहलायेंगे तो हिंदुस्तानी ही न! चूंकि हिंदुस्तानी धर्म से ज्यादा मर्म को समझते हैं। इसीलिए मानवता को अपनी पहचान समझते हैं। यही एक सच्चाई है जो दोनों को एक रखती है।    

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657