थका हारा मुसाफिर हूं..!
घड़ी दो घड़ी आराम चाहता हूं ।
ऐ कुदरत तेरे आगोश में...!
थोड़ा सा विश्राम चाहता हूं ।
दीवाना खुदा का बन जाऊं...!
तहरीर ए तहजीब नाम चाहता हूं ।
फुर्सत के पल दो पल में...!
इश्क ए रुसवाई का
लिखना कलाम चाहता हूं ।
हुस्न इबादत तो बहुत हुआ...!
कुछ अल्फाज़
खुदा के नाम चाहता हूं ।
फूलों को इत्र पर गुमान बहुत है...!
मैं भी परिंदों की काफिले
बेलगाम चाहता हूं ।
लहजे को ज़रा देख
जवां है कि नहीं...!
जिंदगी से कह दे
जीना खुलेआम चाहता हूं ।
थका हारा मुसाफिर हूं...!
घड़ी दो घड़ी आराम चाहता हूं ।।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह 'मानस'
manoj22shah@gmail.com