विश्वासों का बम, बोले धम्म-धम्म

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क

जब विश्वास से श्वास दूर भागने लगे तब मंगल ग्रह पर जीवन तलाशने की बात सरासर बेईमानी होती है। कल तक जो विज्ञान के बल पर दुनिया को मुट्ठी में करने चले थे वहीं दुनिया की मुट्ठी से मुक्त होते होते रह गए। जिस देश में ताली ताली बजाकर करोना वायरस भगाने वाले नेता हों, जहाँ के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में रॉकेट भेजने से पहले उसे प्रभु के चरणों में रखते हों, जहाँ के प्रोफेसर सड़क पर फेंके हुए नींबू-मिर्ची-कुमकुम-हल्दी से डरकर दूर भागते हों, जहाँ के डॉक्टर आकाश के नक्षत्रों को देखकर जन्मे शिशु का नाम रखते हों, जहाँ के अभिनेता अपने नाम की स्पेलिंग बदलकर सिनेमा हिट होने की कामना करते हों, ऐसे देश में क्षुद्र हत्याएं नहीं तो नए आविष्कार होंगे? नरबलि न होगी तो क्या नोबेल पुरस्कार मिलेंगे?

कहने को हम 21वीं सदी में हैं लेकिन अंधविश्वास बाबा आदम के जमाने का है। शरीर चाहे किसी भी युग का हो यदि मन लकीर का फकीर बन अंधविश्वासों में सुस्ताता है तो पाषाण और आधुनिक युग में वही अंतर है जो नागनाथ और सांप नाथ में है।

चिंतन मनुष्य और पशु के समान है जिसे नहीं पता कि उसका जन्म क्यों हुआ? खाओ खुजाओ बत्ती बुझाओ वाली जिंदगी जल्दी से यहां जाओ कहने पर मजबूर कर देती है। विज्ञान विषय की बदकिस्मती देखिए वह अंक प्राप्त करने और ऊंची-ऊंची नौकरी प्राप्त करने का खिलौना बन कर रह गया है। देश में विज्ञान के अध्ययनकर्ता भी अंधविश्वास की पिपड़ी बजाते हुए दिखाई देते हैं। पढ़े लिखे लोग भी अंधविश्वास के चलते अपनी संतान तक की नरबलि देने से पीछे नहीं हटते।

जो शिक्षा तर्क करना नहीं सिखाती वह कागज के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं है। हमारी शिक्षा व्यवस्था तर्क करने, सोचने समझने वालों को नहीं तो तोतों को तैयार कर रही है जो सारा जीवन रटी हुई चीज की उल्टी करने में बिता देते हैं। तर्कहीन शिक्षा की डिग्री वाला रद्दी कागज पशुओं की तरह जीने के लिए नौकरी तो दिला सकता है लेकिन मनुष्य नहीं बना सकता।

पुष्पक विमान को पहला वायुयान, सीता को टेस्ट ट्यूब बेबी, गणेश को पहला प्लास्टिक सर्जरी का प्रयोग बताने वाली बातें खुद प्रधानमंत्री से मंत्री और सामान्य नेता तक कहते हों, वहां विज्ञान की बात करना सरासर बेईमानी होगी। आजादी से पहले और बाद में केवल शासकों की चमड़ी बदली है सोच तो वही की वही है। साम्राज्यवाद निजी कंपनियों का उद्धार, पूंजीपतियों का तो भला कर सकता है लेकिन समाज के दबे-कुचले लोगों को भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई, कृषक आत्महत्याओं से नहीं उबार सकता। जब पूंजी मुट्ठी भर लोगों में कैद हो तो गरीबी रेखा का तांडव करना सहज बन पड़ता है।

गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोग हाथ की लकीरें तो बदल सकते हैं लेकिन स्वार्थी सत्ता की लकीरें कभी नहीं बदल सकते। जब सत्ता स्वयं धर्म के नाम पर लोगों में फूट डालने लगे तब निरीह जनता की स्थिति खुली हवा में दीपक के समान है। दुर्भाग्य से यह भोले-भाले लोग जो अनपढ़ और अतार्किक शिक्षा के शिकार हैं, वे मर सकते हैं लेकिन सोच नहीं सकते।   

 डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657