लुप्तता के बीच ट्विटर का चहचहाना

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

लगता है सारे लुप्त होते पक्षियों का ठेका ट्विटर नाम के पक्षी ने ले रखा है। इस पक्षी ने सबकी नाक में दम कर रखा है। नीले रंग में दिखने वाला एक नन्हा सा पक्षी ट्वीट-ट्वीट कर सभी की जुबान पर चहक रहा है। न दाना खाता है ना पानी पीता है बस दुनिया भर को अपने इशारे पर नचाता है। सेलफोन के टावर से ज्यादा रेडिएशन तो इसके भीतर बसा है। इसके रेडिएशन का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि रातों-रात सरकार में तकरार और विपक्ष में नुस्खे निकाल सकता है। विश्वास न हो तो ट्रंप से ही पूछ लो।

वैसे ट्विट का शाब्दिक अर्थ चहचहाना होता है। हमारे यहां चहचहाने के बहाने ऐसे ठूँढ़ लेते हैं जैसे सरकारी राशन के चावल में कंकर। चूँकि सरकारी चावल में कंकर ज्यादा होते हैं, हमारे देश में चहचहाना भी ज्यादा होता है। जिसे देखो वह चहचहाता है। जैसे चाहे वैसे चहचहाने की होड़ में लगा रहता है। मानो गंगा जी का मेला लगा हो। ट्विटर का ‘लोगो’ एक चिड़िया है अतः इससे स्पष्ट होता है की मनुष्यों के दिन-प्रतिदिन वाले सवाल-जवाब, आम बातें सब प्रकृति से जोड़कर एक पटल जिसे आप वृक्ष अथवा वन समझ सकते हैं पर रख दिया गया है। संसार जहाँ जंगल लगे तब मानव का चिड़िया बनकर चहचहाना तो हजम होता है लेकिन चिड़िया के भेष में क्रूर जानवर बनकर ढोंग करना कुछ हजम नहीं होता।

एक वाक्य में कहा जाये तो ट्विटर वह छायादार वृक्ष है जहाँ देश-विदेश के सभी मानव रूपी पक्षियों का बसेरा होता है। जहाँ कोई छोटे-बड़े, काले-गोरे का भेद नहीं। कम से कम ट्विटर के मालिक ने यही ख्वाब देखा होगा। दुर्भाग्य से कोई पक्षी अपनी चोंच को लेकर तो कोई अपने पंखों को लेकर, कोई पंजों को लेकर तो कोई पूँछ लेकर अपनी-अपनी ढींगे हाँके जा रहा है। इन्हीं ढिंगों में जात-पात, ऊँच-नीच, भाषा, प्रांत, लिंग आदि के भेदभाव पैदा होते हैं और ट्विटराने के सारे जंगल को नेस्तनाबूद कर देते हैं।

ट्विटराने की यह खासियत होती है कि जिसे गली का कुत्ता भी नहीं जानता उसके वायरल होने पर दुनिया जानने लगती है। वैसे भी दुनिया मनोविज्ञान के नवीनता का सिद्धांत का पालन कर रही है। जो नया लगता है उसे याद रखती है और पुराना पड़ते ही कचरे के ढेर में फेंक देती है। कहते हैं, अक्खड़ ट्विटरबाज हरियल पक्षी की तरह अहंकार के पेड़ों पर ही रहते हैं। सादगी की जमीन पर नहीं उतरते। सौम्यता रूपी पानी पीने के लिए भी नहीं। दूसरों की गाढ़ी कमाई वाले रसीले फलों और पत्तियों पर जमा ओस से प्यास बुझाकर बदले में ताना ही मारते हैं। शायद इस ट्विटर के हरियल के बारे में कालीदास को पहले ही पता चल गया था।

 इसीलिए उन्होंने ‘रघुवंश’ में इस हरियल ट्विटराने वाले पक्षी के बारे में अपना दिव्यज्ञान दे दिया था। वे कहते हैं रघु की सेनाएं मलय पर्वत के उन प्रदेशों में पहुंची जहां काली मिर्च के वनों में हरियल उड़ रहे थे। उन्होंने हरियल के बारे में प्रचलित इस किंवदंती का भी उल्लेख किया हैः ‘गही टेक छूटयो नहीं, कोटिन करौ उपायध्हारित धर पग न धरै, उड़त-फिरत मरि जाय।’ 

घर के आसपास आजकल कोयल कूक रही है, बुलबुलें और गौरैया भी चहक रही हैं। मैनाओं के कुछ जोड़े भी आसपास दिखाई दे जाते हैं। बाकी मैनाएं शायद प्रवास पर आई थीं, वापस लौट गईं हैं। अच्छा हुआ अब हरियल भी आ गए हैं। अब प्रभु रघु विश्वास में बसते हैं जंगल ट्विटर बनकर कोयल, गोरैया, मैनाओं को तो ढूँढ़ रहा है, दुर्भाग्य से कलयुग में आज के हरियल अपनी चहचहाहट से जंगल को हथिया लिया है। कमाल की बात यह है कि इस संसार रूपी जंगल में सभी अपने आपको हरियल मानकर चहचहाने का कोई अवसर गंवाना नहीं चाहते।  

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657