सारस्वत - साधना

 युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क  


माँ  वाणी  के आशीष  से,

मिले तुम्हें  सारस्वत रूप।

कुंद, इंदु, तुषार-सी धवल,

वे दान करें सद्गुण अनूप।  


दिव्य ये मात का मुक्ताहार,

बाँधता  तुम्हें  एकता - सूत्र।

तुम्हारी शक्तियों के योग से,

होते महत  कार्य  चमत्कार।


कर-कमल में  वीणा शोभित,

देती तुम्हें सम्यक् कला-भाव।


मात मंदिर सत शिल्प जीवंत,

विलासिता रहे  चिर-उपेक्षित।

विद्या में हो कुंदन की झलक,

अविद्या मोह  संग से  ध्वस्त।


श्वेत कमल पर रहें विराजित,

पंक में भी जो रहता अलिप्त।

देकर  भक्त को शुद्ध  चरित,

रखती अज्ञान - भय से मुक्त।


पुस्तक ज्ञान  की  चिर - प्रतीक,

माला है  भक्ति-भाव की लीक।

सृजन, पालन, संहार  की  रीत,

देती ज्ञान-भाव मिलन की प्रीत।  


रखती हैं तुम्हें  वे जड़ता से दूर,

दें  चैतन्य को अमरत्व का दान।

प्रेरणा में निसर्ग का सत्-दर्शन,

विद्या को दें सद्भाव, सहजीवन।


सारस्वत हों, तुम नव-शिल्प में,

रखें  तुम्हें वे  मोरपंख के तुल्य।

समाज दे, सम्मान या नहीं   देवे,

कृष्ण धारण करें शीर्ष पर नित्य।


रहो तुम,आशावान तेजस्वी सदा,

क्योंकि माता हैं चिर -तेजस्विनी।

क्योंकि वे  हैं,  चिर - तपस्विनी।


@ मीरा भारती।

पुणे, महाराष्ट्र।