मैं आज़ाद भारत की नारी हूँ,
मैं मृदु झंकार भी हूँ और
गांडीव की टंकार भी हूँ।
द्रौपदी बन कृष्ण को नहीं बुलाऊँगी,
निज रक्षा हेतु कृपाण खुद उठाऊँगी।
आजाद हूँ आज़ाद ही रहूँगी,
गुलामी की जंजीरों में न बँध पाऊँगी...
समर्पण भाव सदा रखूँगी पर
आत्मसमान को न भुलाऊंगी,
प्रेम,वात्सल्य की दरिया हूँ मैं,
कर्त्तव्य सदा निभाऊंगी।
अभिलिप्सित नज़रों से न करो प्रहार,
रणचंडी का लूँगी मैं अवतार।
जड़ चेतन की देवी है नारी,
बात तुम्हें याद दिलाऊंगी।
आज़ाद हूँ आज़ाद ही रहूँगी,
गुलामी की जंजीरों में न बँध पाऊँगी...
बहुत हुआ सुरक्षा के लिए गुहार लगाना,
बहुत हुआ कलुषित समाज से गिड़गिड़ाना,
अब स्वयं ही आगे आना होगा,
निज स्वतंत्रता हेतु आवाज़ उठाना होगा।
ओज लिए दिप्त भाल पर आगे बढ़ती जाऊँगी,
आज़ाद हूँ,आज़ाद ही रहूँगी,
गुलामी की जंजीरों में न बँध पाऊँगी...
रीमा सिन्हा (लखनऊ)