ढलती शाम का आँचल

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क


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ढलती शाम का आँचल,

स्निग्ध मन ,नयनों में काजल।

निज नीड़ों को लौटते पक्षीवृंद,

सस्मित है सलोना बादल।


मलय बयार आज हुआ है पागल,

नुपूर ध्वनि से सिंचित जैसे छागल।

रवि की उष्णता ले उड़ा,

पिया मिलन को हिय विकल।


गोरी खड़ी सजधज कर,

राह निहारे प्रीतम की हर पल।

शाम ज्यों ज्यों ढल रही,

 जवां हो रही उमंगें प्रतिपल।


निशा सुहानी ने किया रवि संग छल,

छुप गया जाकर वो अस्ताचल।

तारों से  नभ हुआ है जगमग,

गोल शशि का बूटा जैसे मेंहदी लगी करतल।


                  रीमा सिन्हा

                 लखनऊ-उत्तर प्रदेश