बिखरे ख़्वाब को जोड़ने की
मैं जद्दोजहद कभी करती नहीं
धैर्य की धार हूँ गम से घबराती नहीं
दर्द पहनती हूँ पहरन की जगह
वक्त से लम्हें चुराती नहीं
हर शै मेरी मुठ्ठी में है
दमन का वार सहती नहीं
आग पीती हूँ अश्क नहीं
नज़रों को अपनी नीची रखो
विमर्श को रखकर जूती तले
महफ़ूज़ सी महसूस करती हूँ
अपनी ही रची सियासत को
बदहवास कभी बनाती नहीं
हर युद्ध का आगाज़ मैं करती हूँ
अंत भी मेरे कब्ज़े में है
रौंदने वालों को बख़्शती नहीं
हर वार पर मात ही देती हूँ
अबला का उपनाम न दो
कातिल हूँ मैं कमज़ोर नहीं
शब्दों में ताकत रखती हूँ
हथियार कभी उठाती नहीं
अल्फाज़ ही मेरी आरी है।
भावना ठाकर 'भावु' (बेंगलूरु, कर्नाटक)