वो सत्तर साल...

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

लगता था ‘चक दे इंडिया’ फिल्म का वो ‘सत्तर मिनट’ डायलाग कभी नहीं भुलाया जा सकता।  किंतु राजनीति में कुछ भी संभव है। आज की तारीख में ‘सत्तर मिनट’ से ज्यादा ‘वो सत्तर साल’ वाले डायलाग ने जगह ले ली है। अब तो मैं घर में चूहों की उछल-कूद के लिए भी पिछले सत्तर सालों को कोसता हूँ। कोसूँ भी क्या न? सड़क पर कोई गिर जाए तो क्या वह पिछले सत्तर सालों की गलती नहीं है? किसी का हाजमा खराब हो जाए तो क्या वह पिछले सत्तर सालों की गलती नहीं है? किसी की प्रेमिका रूठ जाए तो क्या वह पिछले सत्तर सालों की गलती नहीं है? मैं तो कहता हूँ सत्तर साल तक हमारी लाचारी हमारी छाती पर मूँग दल रही है, मधुमेह की तरह फैलती ही जा रही है, पेट्रोल की कीमतों की तरह आसमान छू रही है और एक हम हैं जो ढोल बने इनके-उनके हाथों पिटे जा रहे हैं। तरह-तरह के एक सौ तीस करोड़ राग निकाल रहे हैं। इतने राग तो ससुरा संगीत के आचार्यों ने भी नहीं सुनेंगे।  पूरे सत्तर सालों तक हमने मच्छर मारने का काम किया। दुर्भाग्य से वह काम भी ठीक से नहीं कर पाए। अच्छे से मच्छर मार लिए होते तो कम से कम मलेरिया तो नहीं होता। जो जमात मलेरिया को नहीं भगा सका, वह खाक ब्राइबेरिया, करेप्टरिया, रेपरिया, रिलेजनरिया, मॉबलीचिंगरिया, हाईटैक्सेरिया से देश को बचा पायेंगे। सच कहें तो यह सब ऑक्सीजन बनकर हमारे जीवन को चला रहे हैं। ससुरा अब तो ईमानदारी, वफादारी, विकास, नारी सम्मान जैसे शब्द सुनकर भी जुलाब हो जाता है। यहाँ इतिहास कोई और बनाता है, उसे कोई और लिखता है, शासन के सदनों में उसे कोई और गढ़ता है और उसका भुगतान हम करते हैं। सारे बिल हमारे नाम पर फाड़े जा रहे हैं। जब जन्म लिया है तो भुगतो। अच्छा हुआ चेगुवेरा भारत में पैदा नहीं हुआ। नहीं तो वह भी मच्छर मारते-मारते यहाँ से कूच कर जाता।    

ऐसा नहीं कि हम खुश नहीं हैं। बहुत खुश हैं। यकीन न हो तो सिनेमा, रेडियो, टीवी, बड़े-बड़े होर्डिंग्स, समाचार पत्रों के पन्ने, सरकारी बैठकें और सम्मेलन ही देख लें, कितने खुश हैं। हमारे खिलखिलाते चेहरों पर रंग बदलते गिरगिटों, शातिर भेड़ियों की तस्वीरों वाले नेताओं के विज्ञापन हमारी खुशी व्यक्त करते हैं। कागज पर हम सब खुश हैं। जमीन की हकीकत जमीन चाटने वाले ही जानते हैं।  बेबसी हमारी आदत बन गई है। कभी न छूटने वाली बुरी लत। एक बार के लिए सिगरेट, शराब, काम वासना सब से पिंड छुड़ाया जा सकता है, लेकिन गुलामी करने की लत से कतई नहीं। लोकतंत्र का चौथा खंभा जिसे हमारे साथ खड़ा होना चाहिए, वह आकाओं की फेंकी चंद बोटियों के लिए हम से आँखें फेरे बैठा है। सत्ता पक्ष से नैन मटक्का कर रहा है। सच कहें तो हम सब दिल, दिमाग और जी जान से दायित्वों से आँख फेरते नपुंसक बनते जा रहे हैं।

अब हम ऊपर वाले की बनाई डिफॉल्टियत से मरहूम होते जा रहे हैं। ऊपर वाले ने बदन में खून दिया, उसे हमने पानी कर दिया। मेरूदंड दिया है, हमने उसे मेरूविहीन कर दिया। एक जीभ दी थी, जिसका इस्तेमाल गलत को गलत और सही को सही बताने के लिए करना था, उसे भी थूके को चाटने के लिए विवश कर दिया। खेत में बैलों की आँखों पर जो पर्दा लगा होता है, वही अब पूरे देश की आँखों पर लगा है। जो दिखाया जा रहा है, देख रहे हैं। हमसे तो अच्छे बैल हैं, जो कम से कम खेती के बाद सब कुछ देखने के लिए स्वतंत्र हैं। काश हम बैल ही होते हैं।     

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’, मो. नं. 73 8657 8657