जिंदगी की कुछ सच्चाइयाँ केवल दीवार पर लिखने लायक होती हैं। ऐसा करने से राह आते-जाते जानवर कम और लोग ज्यादा उसे अपने अल्पशंका विसर्जन से मिटाने के दीर्घावधि प्रयासों में जोर-शोर से भाग लेते हैं। यही कारण है कि बड़ी-बड़ी सड़कों के किनारे जितनी भी दीवारों पर नेकी वाली बातें लिखी जाती हैं उन्हें अल्पशंका के दरिया में तिलांजलि दे दी जाती है। एक पौधा लगाना तो दूर लगे-लगाए पौधे को पानी देना भी जिनके लिए ओलंपिक मेडल प्राप्त करने जितनी मेहनत का काम लगे वही लोग इन दीवारों के पास अपनी समृद्ध यूरिया वाली जलराशि से घने पेड़-पौधे उगा देते हैं। ये पेड़-पौधे भी अपने समृद्ध यूरिया प्रदाता के प्रति इतने विश्वासपात्र होते हैं कि लाख इन्हें काटने का प्रयास किया जाए बेहयाओं की तरह फिर से उग आते हैं। ऊपर से मौनी बाबा बनकर बोल बच्चन करते हैं कि चोर-उचक्के, लुटेरे, बलात्कारियों को लाख संसद में आने से रोकते हो, फिर भी वे बेहयाओं की तरह संसद की चौखट प्रवेश करने से बाज नहीं आते। क्या हम इन नेताओं से इतने गए गुजरे हैं जो हमें स्वच्छ भारत के नाम पर काटने पर आमदा हो गए हो? सच कहें तो यही पेड़-पौधे बेहयाओं की तरह उगकर दीवारों पर बने गांधीजी और उनकी ऐनक के चित्र की इज्जत बचाते हैं। वे न होते तो कब के महात्मा गांधी अल्पशंकाधारियों के हाथों नप गए होते। विश्वास न हो तो इनकी अनुपस्थिति वाली दीवारों से ही पूछ लें।
लाख चाहे स्वच्छता को बाहर ढूँढ़े लेकिन भीतर का कचरा बाहर की स्वच्छता पर हमेशा भारी पड़ता है। कुछ मौनी अपनी हरकतों से बोल बच्चनों को चप्पल शॉल में लपटकर मारते हैं। अब देखिए न पानी अपना पूरा जीवन देकर मौनी पेड़ को बड़ा करता है इसीलिए पानी लकड़ी को डूबने नहीं देता और एक हम हैं जो सारा जीवन पानी पीकर औरों के लिए पानी का नामोंनिशान नहीं छोड़ते। गांधी जी ने अपनी ऐनक से जो देखा सो देखा आज उनकी ऐनक राजनीति के धोबी घाट पर नेताओं की धोबी पछाड़ का शिकार हो रही है। उनकी ऐनक से सत्य, अहिंसा, धर्म, न्याय दिखायी दे या न दे चुनाव, वोट, मतदाता, सत्ता, कुर्सी यही सब दिखाई देते हैं। जीवन में जो बात खाली पेट और खाली जेब सिखाती है वही बात सत्ता के पहले चार वर्ष सिखाती हैं और बचा-खुचा अंतिम वर्ष में मुंगरीलाल के हसीन सपने पूरा कर देते हैं।
गांधी जी जीवनभर स्वच्छता की पिपुड़ी बजाते रह गए और आजकल के नेता हैं कि दुर्व्यवहारों का कचरा लिये उन्हीं के नाम पर एमएलए-एमपी बन गए। जिस तरह कमल दलदल में खिलकर कलंकित नहीं होता ठीक उसी तरह कोई अच्छी बात मिंया खलीफा, रेहाना और ग्रेटा थुनबर्ग को यह कहने से कलंकित नहीं हो जाती। वे भारतीय सियासी कचरे से घिरी किसानी रूपी स्चच्छता को बचाने के लिए दो बोल क्या बोल दिए कि सत्ता उन पर अपने बोल बच्चन का कचरा फेंकने से बाज नहीं आ रहा। आज गांधी जी होते अपने स्वच्छता शब्द पर बड़ा पछताते। आज उनकी स्वच्छता गंदगी मिटाने के नाम पर सियासी चंगुल में बंधकर चुनावी मैदान में कचरे का ढेर बनता जा रहा है। दवा जेब में नहीँ, शरीर में जाये तो उसका असर होता है। वैसे ही किसान सड़क पर नहीं, खेत में रहें तो देश का विकास होता है। सरकार अपने नए कृषि कानूनों को स्वच्छता और किसानी आंदोलन को कचरा बताकर उन्हें हटाने के लिए अपनी तरह का स्वच्छ भारत अभियान चला रही है। वैसे भी जब तक जोड़-तोड़ की सत्ता रहेगी तब तक कचरे के नाम पर बहुउद्देशीय स्वच्छता का अभियान चलता रहेगा। फिर चाहे रोजगार के कचरे से बेरोजगार हो या फिर सड़क पर बैठे किसान, सरकार जिसे चाहे जैसे चाहे जब चाहे कचरा बनाकर स्वच्छता के नाम पर ठिकाने लगाने का हुनर भली-भांति जानती है। इसलिए कहीं जिंदगी कचरा न बन जाए, अपनी स्वच्छता बचाओ यारो!
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, मो. नं. 73 8657 8657