मांगता रहा मैं हाथ

       

  युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

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मांगता रहा मैं हाथ,

ज़िन्दगी कशमकश में

गुजरती चली गयी 

रिश्तों में उसूलों में

उलझती चली गयी 

बहता हुआ पानी था 

वो मैं किनारे का था 

दरख्त ,

हरकते उसकी जड़ों 

से मेरी मिट्टी हटाती 

चली गईं,

साथ रहकर भी मैं 

उसको ( जिंदगी ) 

समझ न सका ,

माँगता रहा मैं हाथ '

वो ' दामन छुड़ाती 

चली गयी ।

डॉ . मुश्ताक़ अहमद शाह

"सहज़" हरदा मध्यप्रदेश