नफ़रतों का हिसाब करना है

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क


मुहब्बतों का हिसाब बाक़ी है,

नफ़रतों का हिसाब करना है,

ज़िन्दगी इतनी लंबी तो नहीं 

एक लम्हा बड़ा सा लगता है,

वो आएं के नहीं आएं इंतज़ार

हमने तो उनका सजा रखा है,

मौसमे फुरकत तो गुज़र जाएं गे,

ख़्वाब हमने सजा के रख्खा है,

भूल जाती है ये दुनिया क्यों

बुरे वक़्त में आख़िर देखो तो,

अपनी मुहब्बतों में शायद हां

कोई मतलब मिला के रख्खा है

कुछ तो मजबूरियां हमारी भी

साथ हमारे ही रहा करती हैं,

इश्क़ को हमने अभी ज़रा दूर

खुद से अपने बिठा रख्खा है,

बड़ी गहरी सोच में डूबे हैं सब

आख़िर  क्यों ये ख़ुदाई वाले,

पेश करते हैं ये  वो ही शरबत 

ज़हर जिसमें मिला रख्खा है,

रिश्ता खून का था अपना मगर

हर तआलुक़ अब तोड़ दिया है,

बीते लम्हों की चादर का कफ़न

मैं ने  तो अभी ओढ़  रख्खा है,

भाईयों  की फ़ितरत से अब  मैं

हुआ हूँ वाकिफ ज़रा मुश्ताक़,

यूसफ़ के लिए इन्होंने  आख़िर

कुंवा कहीं पर खोद रख्खा है,


डॉ,. मुश्ताक़ अहमद शाह

सहज़

हरदा  मध्यप्रदेश,,,,