उजड़ गया उपवन मेरा

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 

उजड़ गया उपवन मेरा मेरी सूनी पड़ी हवेली, किसको खली थी बेटी जिसने रस्म-ए-बिदाई गड़ी...

रस्म अदायगी की मेरे एहसास ने कैसी है सज़ा पाई

मेरे आँचल का शामियाना छोड़ सुता को पियु की गलियाँ भाई..

अब क्या जाने सूने आँगन में क्या ढूँढते है मेरे नैना, 

मेरी चौखट के चाँद का जैसे बदल गया बसेरा

पंख पड़ा मुंडेर पर चिड़ीया का मुस्कुराते कह रहा ,,,,

उड़ गई तेरी तनया उम्र का सफ़र कैसे कटेगा...

अल्हड़ अठखेलियां कैसे भूलूँ 

मेरी गुड़िया थी फूलों की डली सी

अक्षत के चार दाने उछालकर पल्लू में रिद्धि सिद्धि दे चली...

गलियारे के छोर तक जाकर नज़रें खाली लौट आती है 

न आहट आत्मजा के पैरों की न झनकार पैरों के पाजेब की...

खाली खाली जग लगे रोए घर का कोना कोना,,,कौन दिशा में ले उड़ा मेरे उर का आधा हिस्सा...

हथेलियों में बसी बिटिया की खुशबू मैं कैसे छुड़ाऊँ 

यादें उसकी इतनी गहरी भूले से न भूल पाऊँ

दीवारों में दुहिता का दिखे खिलखिलाता चेहरा, जीवन मेरा सूना कर गया कन्यादान का कहरा।

भावना ठाकर 'भावु' (बेंगुलूरु)