भूखे प्यासे भरत काका मंदिर में बैठ कर रो रहे थे। अपना सारा जीवन उन्होंने भैया भाभी की सेवा में लगा दिया था, लक्ष्मण की तरह, भाई और देवर बन कर। भैया जो बेहद प्यार करते थे, इस दुनिया में नहीं थे, और भैया की बहुएँ भी उन्हें ताना मारतीं थीं, घर बाहर के सारे काम करवा कर तब कहीं उन्हें खाना देतीं थीं वो भी ताने के साथ। भाभी की कहां चलती थी।
भैया भाभी की सेवा में इतने मशगूल थे कि, उन्होंने अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं,..भविष्य की कोई चिंता नहीं की! क्या पता था! वक्त क्या खेल खेलने वाला है।
उसी मंदिर के सामने एक युवक रोज फल और सब्जियों की दुकान लगाया करता था।
वह रोज भरत काका को मंदिर के पास बैठे हुए देखता था। पर आज तो हद ही हो गई थी...
भरत काका को रोते हुए देख, उससे रहा नहीं गया, और वह उनके पास जाकर, उनका दीन हीन चेहरा ध्यान से देखने लगा...और सारी बातें समझते उसे देर न लगी। उनका दीन हीन चेहरा सारी बातें बयां कर रहा था।
वो भरत काका से कहने लगा, "काका मैं रोज आपको यहां देखता हूं, मैं यहां रोज सब्जियां और फल बेचता हूं,...और दिन भर यहीं रहता हूं, खाना घर से ही ले कर आता हूं, कभी-कभी अगर खाना तैयार नहीं हो पाया तो, किसी ढाबे में खा लेता हूं...आज अकेले खाने की इच्छा नहीं थी....तो सोचा आज आपके साथ खा लूं!"
"चलिए उस पेड़ के नीचे बैठकर हम दोनों साथ में खाना खाते हैं!"भरत काका तो भूखे थे ही वो तुरंत उस युवक के साथ बैठकर खाने लगे और आंसू पोंछने लगे।
बात बात में काका ने अपना सारा दुखड़ा कह सुनाया।
तब उस युवक ने कहा, कैसा खेल है भगवान का! यहां मैं भी अनाथ हूं अकेला रहता हूं, मेरी मौसी ने मुझे पाला था, वो भी गुजर गई...आज आपके साथ खाना खाते हुए पता चला,...पिता के साथ बैठकर खाने का आनंद क्या होता है!" "
भगवान ने हम दोनों अजनबीयों को शायद इसीलिए मिलाया है।"
फिर भरत काका ने कहा, बेटा मैं तुम्हारा यह कर्ज कैसे चुकाऊंगा?"
तो उस युवक ने कहा, "मैं अजनबी हूं, इसलिए आप ऐसा कह रहे हैं क्या आपका बेटा होता तो,......
वो फिर चुप हो गया।
फिर उसने कहा, "ठीक है आप रोज इस दुकान में एक पिता की तरह मेरी सहायता करना,...मैं अजनबी अनाथ हूं, पर कुछ एहसास पिता के साथ का हो,...और फर्ज बेटा का मैं भी निभा सकूं!"
उसकी बात को सुन भरत काका मंदिर की ओर भगवान की मूरत को देखने लगे।
स्वरचित -अनामिका मिश्रा
झारखंड, सरायकेला (जमशेदपुर)