सदियों से हमारे समाज ने गुरु की महत्व को स्वीकारा है।'गुरू बिन होहि ना ज्ञान' का सत्य भारतीय समाज का मूलमंत्र रहा है।माता बालक की प्रथम गुरु होती है,क्यों की बालक उसी से सर्वप्रथम सीखता है।
बच्चा अपने जन्म के बाद जब बोलना सीखता है तो सबसे पहले जो शब्द वह बोलता है वह होता है 'माँ'। स्त्री माँ के रूप में बच्चे की पहली गुरु है।
माता द्वारा नौ महीने बच्चे को अपनी कोख में पालने व उसके बाद होने वाली प्रसव पीड़ा का माता को जो अनुभव होता है उसका बालक के जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। माता से ही वह संस्कार ग्रहण करता है। माता के उच्चारण व उसकी भाषा से ही वह भाषा-ज्ञान प्राप्त करता है। यही भाषा-ज्ञान उसके संपूर्ण जीवन का आधार होता है।
इसी नींव पर बालक की शिक्षा-दीक्षा तथा संपूर्ण जीवन की योग्यता व ज्ञान का महल खड़ा होता है। माता का कर्तव्य केवल लालन-पालन व स्नेह दान तक ही सीमित नहीं है। बालक को जीवन में विकसित होने, उत्कर्ष की ओर बढ़ने के लिए भी माँ ही शक्ति प्रदान करती है। उसे सही प्रेरणा देती है।
समय-समय पर बचपन में माँ के द्वारा दिया गया ज्ञान ही संपूर्ण जीवन उसका मार्गदर्शन करता है।
हालांकि हमारे जीवन में आध्यात्मिक गुरु का भी विशेष स्थान एवं महत्वपूर्ण योगदान होता है
भगवान् दत्तात्रेय ने अपने चौबीस गुरु बनाए थे।इनके अलावा भी भारतीय धर्म , साहित्य और संस्कृति में अनेक ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं , जिनसे गुरु का महत्त्व प्रकट होता है। यहां तक कि भगवान श्रीराम ,वशिष्ठ जी को गुरु रूप में पाकर , भगवान श्रीकृष्ण जी , संदीपनी जी को पाकर अपने आपको बड़ भागी माना ।
गुरु की महत्ता बनाए रखने के लिए ही भारत में गुरु पूर्णिमा को गुरु पूजन किया जाता है।
गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर जीवन की प्रथम गुरु माॅं को मेरा सौ सौ बार प्रणाम
मधुलिका राय, "मल्लिका"
गाजीपुर (उत्तरप्रदेश)