यह जीवन कितना नेहिल है,सचमुच में ही बचपन से।
कभी नहीं रिश्तों में कटुता,भरा रहा अपनेपन से।।
बीते दिन सब मौज़ मनाते,खुशियों के थे मेले।
उल्लासित थी सदा ज़िन्दगी,दिन थे सब अलबेले।।
बचपन बीता दिन आए फिर,लिए किशोरावस्था।
हुआ पढ़ाई का बोझा फिर,भारी पाया बस्ता।।
डांट-डपट का दौर आ गया,सीमित हुई खिलाई।
जब भी होमवर्क छूटा तब,टीचर मार लगाई।।
कॉलिज पहुँचा,लगा चहकने,पाया यौवन भारी।
मस्ती,धूमधड़ाका,पिकनिक,रहा सभी कुछ ज़ारी।।
प्रेम-मुहब्बत,मादकता भी,आई उस मौसम में।
लेकिन वह सब उम्र-तकाज़ा,समझ नहीं थी हम में ।।
हुई पढ़ाई पूरी तो फिर,संघर्षों ने घेरा।
भाग्य सदा भटकाता रहता,जाने क्योंकर मेरा।।
पर श्रम रँग लाया था इक दिन,पाया उच्च नौकरी।
शादी होकर रौनक आई,दुनिया निखरी निखरी।।
ज़िम्मेदारी ख़ूूब निभाई,मैंने हर परिजन की।
जॉब किया सम्पूर्ण लगन से,चिंता रही वतन की।।
पर मैंने ईमान सँजोकर,निज कर्तव्य निभाया।
बेटा-बेटी,पत्नी के प्रति,अतुलित प्रेम बहाया।।
मातु-पिता तो रहे नहीं अब,सेवा से वंचित हूूँ।
वृद्ध-आश्रम भरे हुए हैं,सोच-सोच चिंतित हूँ।
मैंने तो जनकों में हरदम,ईश्वर को देखा है,
निज सच्चाई,धर्म,नीति का,संग चले लेखा है।
बच्चे मेरे सैटल हो गए, सेवा से निवृत्त हूँ।
धर्म,भजन-पूजन भाता है,दान-पुण्य में रत् हूँ।।
जीवन लगता मुझको मीठा,सुखद संग यादें हैं।
प्रभु की दया सदा है मुझ पर,देव मुझे साधे हैं।।
मुड़कर देखूँ जीवन को तब,लगता यह उपहार है।
अंधकार भी आया था पर,अंत मिला उजियार है।।
जीवन तुझको नमन् कर रहा,यादों का गुलदस्ता तू।
खट्टी-मीठी यादों के सँग,सचमुच में ही हँसता तू।।
-प्रो(डॉ)शरद नारायण खरे
(मो.9425484382)